MANUSHY CHAAHE KUCH BHI KAR LE,VAH PRAKRTI/ISHWAR/BHAAGYE,PARE NAHI JA SAKATA,JIVAN OR MRUTYU BRAHMA OR VISHNU DUARA PURV NIRDHARIT HAI #PART3
20 PARTS OF THIS STORY, WHICH IS STORY STORIES IS IMAGINARY
जीवन और मृत्यु ब्रह्मा और विष्णु द्वारा पूर्व निर्धारित हैं
RAJA KUMAR PRAJAPATI
11/13/2025
इस ब्लॉग में 11 से 17 तक की कहानी है
भाग (11 ) चरम अहंकार
महामारी की दूसरी लहर में जब लोगों ने देखा कि विशाल अकेले दम पर सैकड़ों की जान बचा रहा है तो वे उसे देवदूत कहने लगे लोग उसके पैरों पर गिरते, उसके नाम की कसम खाते, घर-घर उसकी चर्चा होने लगी धीरे-धीरे विशाल के मन में एक बीज अंकुरित होने लगा अहम् शायद मैं सामान्य मनुष्य नहीं शायद मेरे भीतर कुछ दिव्य शक्तियाँ हैं उसे लगा कि जहाँ डॉक्टर, वैद्य, और विद्वान असफल हो रहे हैं वहाँ वह सफल क्यों है क्या उसके भाग्य से परे उसकी शक्ति है क्या वह नियति को मोड़ सकता है यही प्रश्न उसके भीतर घमंड को जन्म दे गया,
भीतरी गर्व
रात में जब सब सो जाते, वह नदी किनारे अकेला बैठता पानी में अपना प्रतिबिंब देखता और मन में सोचता क्यों मुझे ही चुना गया क्या मैं ऋषि, सिद्ध,
या फिर किसी महान आत्मा का अवतार हूँ वह अपने कर्मों का सार समझ चुका था,पर अभी भी उसे परिणामों से मुक्त होना बाकी था कर्म करते-करते उसके भीतर एक नई चाह जागी,अमर होने की चाह,अमरत्व का बीज एक दिन उसके गाँव में एक बहुत वृद्ध यात्री आया उसकी आँखों में समुद्र-सी गहराई थी, पर शरीर सूखी लकड़ी-सा उसने विशाल से कहा मैंने सुना है तुम मृत्यु को मात दे रहे हो विशाल मुस्कुराया गर्व से बोला मैंने कई लोगों को
मृत्यु के मुँह से निकाला है अगर ज्ञान मिले, तो शायद मैं मृत्यु को हराकर अमर भी हो सकता हूँ वृद्ध ने एक रहस्यमय हँसी हँसी अमरत्व मुक्ति नहीं,बंधन है विशाल ने कहा बंधन जो अमर हो वह सबका रक्षक हो सकता है वृद्ध बोला अमर उस वृक्ष समान है जो सड़ नहीं सकता पर फूल भी नहीं दे सकता जो मर नहीं सकता पर जी भी नहीं सकता विशाल ने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया उसके मन में अब सिर्फ एक ही लक्ष्य था अमर होना,
साधु का पुनः प्रकट होना
जब वृद्ध चला गया, रात में वन से वही साधु आए जिन्होंने उसे ज्ञान दिया था उनकी आँखें आज क्रोध से भरी थीं उन्होंने कहा,विशाल तू फिर उसी राह पर चल पड़ा जिसने तुझे पहले गिराया था विशाल हँस पड़ा गुरुदेव, अब मैं सब जान चुका हूँ मैंने मृत्यु से अनगिनत लोगों को बचाया है मेरा कर्म मुझे अमर बना सकता है साधु तड़प उठे अहंकार सबसे बड़ा अंधा कुआँ है तू समझता हैतूने लोगों को बचाया नहीं तू केवल उनके कर्म पूरे होने तक साथ खड़ा रहा मृत्यु को किसी ने नहीं हराया न देव, न दानव,न मनुष्य,विशाल ने प्रतिवाद किया तो मैं पहला बनूँगा साधु चुप हो गए उनकी आँखों में गहरी पीड़ा उतर आई वे बोले ठीक है यदि सत्य वही सीखना है जो तू अपनी हार से सीखेगा तो जा तू उस राह पर चलेगा जहाँ केवल अंधेरा है साधु चले गए पर जाते-जाते एक वाक्य हवा में छोड़ गए जब भाग्य से लड़ोगे,तो भाग्य भी अपने सबसे भयावह रूप में तुम्हारे सामने आएगा,
अहंकार की पराकाष्ठा
अब विशाल वनों में घूमता,तांत्रिकों, साधकों, ऋषियों से मिलता अमरत्व का रहस्य पूछता कई उसे पागल कहते, कई डरकर मना कर देते अमरत्व का ज्ञान यमराज के नियमों के विरुद्ध है पर विशाल रुका नहीं उसके भीतर एक ही ज्वाला थी मैं मृत्यु को जीतूँगा मैं भाग्य को बदलूँगा पर प्रकृति किसी के घमंड को ज्यादा देर तक नहीं सहती,जंगल, नदी, पर्वत सब उसे देख रहे थे मानो चेतावनी दे रहे हों मानव तू अपनी सीमा भूल रहा है और इसी घमंड को सीख देने भाग्य धीरे-धीरे अपनी अगली चालचल रहा था,
भाग (12 ) प्रकृति का प्रकोप
अब क्या होगा
क्या प्रकृति उसका घमंड तोड़ देगी
क्या उसकी चाह उसे विनाश की ओर ले जाएगी,
प्रकृति का प्रकोप
अहंकार की आँच धीरे-धीरे विशाल के भीतर तेज़ होती जा रही थी अदृश्य हाथों ने उसके मन पर मोह और शक्ति की परतें चढ़ा दी थीं वह रातों में
घने जंगलों में घूमता, पहाड़ों की चोटी पर साधना करता एक ही उद्देश्य से मृत्यु पर विजय लेकिन जिस क्षण मानव प्रकृति से आगे निकलने का सोचेउसी क्षण प्रकृति जाग उठती है और उसे उसकी सीमा दिखाती है,
भूल-भुलैया में प्रवेश
एक दिन वह हिमालय की ओर चल पड़ा कहते हैं कि वहाँ ऐसी शक्तियाँ सोती हैं जो मनुष्य को देवतुल्य बना सकती हैं कई दिनों की यात्रा के बाद
वह ऐसी घाटी में पहुँचा जहाँ हमेशा धुंध रहती थी स्थानीय लोग उसे रोकना चाहते थे वहाँ मत जाना वहाँ न कोई जीव लौटता है, न उसकी आवाज़ लेकिन विशाल अभिमान से भरा हँस पड़ा मैं तो उसी से लड़ने आया हूँ जिससे तुम डरते हो लोग चुप हो गए क्योंकि अहंकारी मनुष्य से कभी कोई जीत नहीं सकता सिवाय प्रकृति के,
प्रकृति की पहली चेतावनी
घाटी में प्रवेश करते ही हवा बदल गई। पेड़ों की टहनियाँ मानो फुसफुसा रही हों रुक जा पर विशाल आगे बढ़ता रहा अचानक जमीन काँपी घाटी से अजीब-सी गूँज उठी मानो सैकड़ों आत्माएँ एक साथ विलाप कर रही हों विशाल घबरा गया पर रुका नहीं और तभी पहाड़ से एक बड़ा पत्थर सीधे उसकी ओर लुढ़का,वह कूदकर बचा दिल जोर-जोर से धड़क रहा था उसने सोचा सिर्फ संयोग है पर यह संयोग नहीं, पहली चेतावनी थी,
अदृश्य शक्ति का आह्वान
घाटी का अंत एक प्राचीन मंदिर पर था टूटा-फूटा, पर रहस्यमय दीवारों पर देवता-दानव-ऋषि सबके चित्र थे पर केंद्र में एक आकृति बनी थी जो किसी का भी रूप नहीं थी ना देव, ना दानव, ना मनुष्य बस एक आँख-सी सबको ताकती हुई उस आँख को देखते ही विशाल का शरीर काँप उठा एक पल को लगा मानो वह उसके भीतर झाँक रही हो तू कौन है उसने कहा पर उत्तर सन्नाटा था,
भीषण तूफ़ान
अचानक तेज़ हवा चल पड़ी इतनी कि पेड़ उखड़ने लगे बिजलियाँ टूट-टूट कर गिरने लगीं पहाड़ों से बर्फस्खलन होने लगा विशाल भागा पर तूफ़ान उस पर टूट पड़ा ऊपर आसमान काला नीचे धरती काँपती बीच में वह अकेला,एक विशाल वृक्ष उस पर गिरते-गिरते बचा उसके कपड़े फट गए चेहरा लहूलुहान हो गया उसने चीखकर कहा मैं अमर होना चाहता हूँ मुझे रोक कौन सकता है और उसी पल बिजली उसके ठीक सामने गिरी इतनी तेज कि धरती फट पड़ी,फटी जमीन से एक आवाज़ उठी,प्रकृति सीमा मानव वह आवाज़ धीमी थी पर इतनी गंभीर कि दिल चीर दे,विशाल के कदम जैसे पत्थर हो गए,
अदृश्य शक्ति का रूप
धुंध एक तरफ हटने लगी उसके सामने एक आकृति उभरी ना पूरी स्त्री ना पुरुष ना मानव ना पशु वह प्रकृति का रूप थी कभी अग्नि की तरह धधकती कभी जल की तरह शांत उसने कहा अमरता की चाह अमर विनाश लाती है विशाल काँप उठा,उसने हकलाते हुए कहा मैं बस मृत्यु को हराना चाहता हूँ प्रकृति हँसी इतनी गूँजदार ,कि पर्वत कंप उठे मृत्यु से बचकर तू कहाँ जाएगा, मनुष्य जिसका जन्म है उसका अंत है जो पनपे वह झरेगा तू सोचता है कर्म तुझे बचा लेंगे,कर्म सिर्फ मार्ग हैं मुक्ति नहीं,
तीसरी चेतावनी — प्रलय
अचानक भूचाल आया पहाड़ फटने लगे,नदियाँ उफान मारने लगीं विशाल जमीन पर गिर पड़ा पत्थर उसके पैरों को घायल कर गए वह घिसटता हुआ मंदिर के भीतर घुस गया दीवारों पर लिखे शब्द रक्त जैसा चमकने लगे जो भाग्य से लड़े वह भस्म हो विशाल चीख उठा,बाहर हवा-पानी-अग्नि तीनों एक साथ प्रलय मचा रहे थे वह समझ गया,यह कोई सामान्य तूफ़ान नहीं यह उसके अहंकार का उत्तर है,
तोड़ना या टूटना
उसने प्रहार सहते हुए कहा मैं नहीं मानूंगा मैं अमर होऊँगा मैं मृत्यु को मिटा दूँगा और उसी क्षण, मंदिर की मूर्ति, की आँखें लाल हो उठीं,प्रकृति की आवाज़ पहाड़ों में गूँज उठी,जब मानव अपनी सीमा भूलता है हम उसका देह और आत्मा दोनों छीन लेते हैं विशाल को अचानक लगने लगा कि उसका शरीर पिघल रहा हैमानो अदृश्य आग उसे भीतर से जला रही हो,वह दर्द से तड़प उठा उसकी चीखें घाटी में गूँजती रहीं,पर कोई सुनने वाला नहीं क्योंकि प्रकृति कभी नहीं हारती,
अंधेरे में धँसना
अचानक सब शांत हो गया,तूफ़ान थम गया बिजलियाँ बुझ गईं धुंध गायब हो गई,घाटी अजीब रूप से शांत हो गई डरावनी शांति,विशाल ने सिर उठाया आसमान देखा हवा में सन्नाटा था लेकिन उसके भीतर कुछ बदल चुका था उसके शरीर पर घाव थे पर उससे भी गहरे घाव उसकी आत्मा पर थे वह समझ गया प्रकृति सीमा लांघने वालों को सिर्फ चेतावनी नहीं देती,सजा भी देती है उसके भीतर अमरता की ज्वाला बुझी नहीं पर रोष अब डर में बदलने लगा अब भाग्य अपनी अगली चाल चलने को तैयार था,
अगला भाग
भाग (13 ) मृत्यु का बुलावा
क्या विशाल को यमदूत बुलाने आएँगे
क्या वह मृत्यु के द्वार तक पहुँचेगा या फिर भाग्य उसे कुछ और दिखाएगा,
मृत्यु का बुलावा
प्रकृति के प्रकोप से जीवित तो बच गया, पर भीतर कुछ जड़ से टूट चुका था उसकी देह घायल,मन भयभीत,और आत्मा पहली बार अपनी सीमा पहचानने लगी थी घाटी से लौटते हुए,उसकी आँखों में किसी परछाई का डर बस गया जो हर कदम उसके पीछे चलती थी वह जब भी पीछे मुड़कर देखता, वहाँ कुछ न होता,पर वह महसूस करता कोई है जो उसे देख रहा है नाप रहा है और इंतज़ार कर रहा है,
घाटी से बाहर
वह लड़खड़ाते कदमों से तलहटी तक पहुँचा गाँव वाले चौंक पड़े जिस घाटी से कोई लौटता नहीं,वहाँ से वह लौट आया था पर उसकी आँखें अब पहले जैसी नहीं थीं पहले उनमें आग थी,अब बस शून्यता थी वह चुप रहा,किसी से कुछ न कहा,अपने घर की ओर चल दिया पर उसने ध्यान दिया हर पेड़,हर पत्थर,हर हवा का झोंका उसे ऐसे देख रहा है मानो उसके लिए शोक मना रहा हो,
अदृश्य दस्तक
उस रात जब वह घायल शरीर लिए अपने बिस्तर पर लेटा एक अजीब-सी ठंड कमरे में भरने लगी आग जल रही थी,पर गर्मी गायब थी एकाएक
दीपक की लौ लाल हो गई फिर नीली छाया दीवार से उठकर उसके सिरहाने खड़ी हो गई विशाल का शरीर कांप उठा वह बोल भी न सका तभी हवा में कोई धीमी आवाज़ गूँजी विशाल समय हो गया उसका गला सूख गया शब्द नहीं निकले छाया और उभरी उसमें आकृति बनने लगी लंबा कद,काले वस्त्र,और हाथ में एक दंड वह पहला यमदूत था,
साक्षात्कार
यमदूत बोला तेरा समय लिखा जा चुका था भाग्य अब बुला रहा है विशाल ने काँपते हुए कहा अभी नहीं अभी नहीं मैंने तो यमदूत ने बात काट दी प्रकृति तीन चेतावनियाँ देती है तूने तीनों सुनी पर माना नहीं,अब समय पूरा हुआ चल विशाल डर से पागल हो उठा नहीं नहीं अभी नहीं यमदूत शांत था हर मनुष्य यही कहता है पर चलना सबको है,
भाग्य की आँख
अचानक कमरा बदलने लगा दीवारें धुंध में बदल गईं फर्श जल—सा हो गया उसने महसूस किया कि वह अपने शरीर से उठता जा रहा है उसने नीचे देखा उसका शरीर बिस्तर पर पड़ा था आँखें खुली हुई पर जीवन नहीं,उसने चीखकर कहा ये मैं नहीं मैं अभी ज़िंदा हूँ यमदूत बोला जीवन शरीर में नहीं
श्वास में है तेरी श्वास रुक चुकी है विशाल ने पहली बार अपने अस्तित्व को देह से अलग देखा वह अब आत्मा था स्वच्छ पर भयभीत,
गृह से विदाई
यमदूत ने कहा पछतावे का समय पृथ्वी पर होता है यहाँ केवल परिणाम मिलते हैं विशाल ने अपने परिवार को देखा वे सो रहे थे उन्हें पता भी नहीं था कि विशाल अब इस लोक में नहीं,उसके मन में बादल फट पड़े काश कुछ और समय मिल जाता यमदूत बोला जो मिला वही पर्याप्त था जो नहीं मिला वह तेरा कर्म था,
संसार की सीमा पार
घर की छत धीरे-धीरे गायब होने लगी नीचे पूरा गाँव धुंध में बदल गया विशाल और यमदूत आकाश में उठते गए,धरती छोटी होती गई पर्वत, नदी, जंगल सब बादलों में खोते गए विशाल ने पूछा,मैं कहाँ जा रहा हूँ यमदूत बोला जहाँ हर आत्मा जाती है न्याय के दरबार में विशाल कांप उठान्याय क्या होगा मेरा यमदूत ने कहा ,जो बोया है वही काटेगा, और फिर अंधकार चारों ओर फैल गया
अंतर-लोक का द्वार
कुछ समय बाद (या शायद समय का कोई अर्थ न था)विशाल ने देखा,अंधकार अब चमक में बदल रहा है आगे एक विशाल मार्ग जिसके दोनों ओर
आत्माएँ जा रही थीं कुछ रो रही थीं,कुछ शांत थीं,कुछ भय से काँप रही थीं और अंत में एक द्वार था असीम जिसके ऊपर लिखा था“कर्म–लोक” यमदूत बोला यहीं से तेरी असली यात्रा शुरू होती है अब विशाल मृत्यु के पार एक नए लोक में था जहाँ ना देह, ना समय सिर्फ कर्म और सत्य,
भाग (14 ) यमलोक की यात्रा
क्या विशाल
यमराज के दरबार तक पहुँचेगा
उस राह में कौन-कौन से रहस्य होंगे
क्या उसे अपने कर्म दिखाए जाएँगे,
यमलोक की यात्रा
विशाल अब उस अदृश्य संसार में प्रवेश कर चुका था, जहाँ न सूर्य था, न चंद्रमा, न दिन, न रात बस एक लंबा मार्ग जिस पर अनगिनत आत्माएँ चुपचाप आगे बढ़ रही थीं कुछ भयभीत, कुछ शांत, और कुछ मानो किसी गहरे सत्य को जान चुकी हों,विशाल मन ही मन घबराया क्या सचमुच यही अंत है यमदूत उसकी बगल में चल रहा था ना तेज, ना धीमा बस उसी गति से जिस गति से विशाल चलता था मानो इस यात्रा में हर आत्मा अपनी रफ़्तार खुद तय करती हो,
यात्रा का प्रारंभ
उस मार्ग पर कदम रखते ही,विशाल को महसूस हुआ कि उसका अस्तित्व हल्का हो रहा है मानो वह कोई बोझ धीरे-धीरे छोड़ रहा हो पर उसी के साथ एक अजीब-सी पीड़ा भी उठती मानो उसकी आत्मा पिछले पापों की गर्मी सह रही हो विशाल ने पूछा ये दर्द क्यों यमदूत शांत स्वर में बोला,जब आत्मा अपनी सच्चाई के पास आती है तो उसका भार धीरे-धीरे पिघलता है वही दर्द है,
अग्नि-सरोवर
आगे एक विशाल अग्नि-सरोवर था उसकी लपटें ऊँची-ऊँची उठ रही थीं पर कोई धुआँ नहीं उनसे आग की गर्मी नहीं बल्कि ठंडक महसूस होती थी कई आत्माएँ उसमें से गुजरती थीं कुछ शांत हो जातीं मानो,उन्हें मुक्ति मिल रही हो,कुछ चीख उठतीं मानो उनके भीतर अधर्म की गाँठें पिघल रही हों विशाल ने भय से पूछा,क्या मुझे भी इसमें जाना होगा यमदूत बोला हर आत्मा सरोवर से गुजरती है पर आग
केवल उसी को जलाती है जिसमें अधर्म भरा हो,सत्य, शांत जल की तरह अग्नि में भी स्थिर रहता है विशाल का दिल तेज़ी से धड़कने लगा पर जैसे ही उसने पहला कदम अग्नि-सरोवर में रखा,उसे एक अनोखा स्पर्श महसूस हुआ जैसे कोई पुराना बोझ हल्का हो रहा हो,ना दर्द ना जलन बस शांति वह आगे बढ़ता गया सरोवर पार करते समय उसने देखा उसकी देह और हल्की हो रही है उसका मन कुछ स्पष्ट हो गया कुछ सत्य फिर से याद आने लगे,
बीते कर्मों की छाया
सरोवर के बाद एक अंधेरी गली थी जहाँ दीवारें नहीं थीं पर छायाएँ थीं वो छायाएँ कभी हंसतीं, कभी रोतीं,कभी दर्द में कराहतीं विशाल ने पूछा,ये कौन यमदूत बोला,ये तेरे पिछले कर्म हैं अच्छे-बुरे दोनों कर्म केवल किए नहीं जाते वे आत्मा की दीवारों पर छाया बनकर साथ चलते हैं विशाल धीरे-धीरे उन छायाओं के बीच से गुजरने लगा एक छाया अचानक उसके सामने आई वह उस बच्चे की थीजो महामारी में उसकी गोद में मरा था बच्चा मुस्कुराया और आगे बढ़ गया विशाल की आँखों में आँसू आ गए,
कर्म-मार्ग का वृक्ष
कुछ दूर एक विशाल वृक्ष खड़ा था उसकी शाखाएँ आकाश तक फैली थीं, और जड़ें अंतहीन धरती में उतरती थीं उस पर अनगिनत नाम लिखे थे मानवों के, देवों के, असुरों के यमदूत बोला यह कर्म-मार्ग वृक्ष है हर आत्मा इस पर दर्ज होती है विशाल ने ध्यान से देखा वहाँ उसका भी नाम था पर उसके नाम के आगे कुछ चमकते शब्द थे ‘अधूरा सत्य’ विशाल बुदबुदाया अधूरा यमदूत बोला हाँ तू सत्य के क़रीब गया पर अहंकार ने तुझे पीछे खींच लिया अतहीन पुल वृक्ष के आगे एक पुल था लंबा इतना लंबा कि अंत दिखाई नहीं देता था पुल के नीचे गहरी खाई,उसमें चमकती लपटें, चीखें, और अंधेरा यमदूत बोला जो भारी होते हैं पाप से, अहंकार से, लालच से वे इस पुल पर टिक नहीं पाते,और नीचे गिर जाते हैं जो हल्के होते हैं सत्य, धर्म, कर्म से वे आगे बढ़ जाते हैं विशाल काँप गया वह आगे बढ़ा हर कदम पर
पुल हिलता डराता पर टूटता नहीं,उसे महसूस हुआ कोई अदृश्य शक्ति उसे संभाल रही है यमदूत बोला
तेरे कर्म
तुझे गिरने नहीं दे रहे।
लेकिन
दूर तक ले भी नहीं जा रहे
विशाल ने पूछा क्यों क्योंकि तेरी यात्रा न न्याय है न दंड बल्कि सीख,
यमलोक का द्वार
पुल के अंत में एक विशाल द्वार था काले पत्थरों से बना पर उसके ऊपर स्वर्णिम लिपि में लिखा था
“यमलोक”
द्वार के पास दो प्रचंड प्रहरियों के रूप खड़े थे जिनकी आँखें अग्नि के समान जल रही थीं उन्होंने विशाल को देखा, और द्वार धीरे–धीरे
खुल गया भीतर एक विशाल प्रांगण था जहाँ अनगिनत नदियाँ,असंख्य मार्ग,और एक सिंहासन सिंहासन पर बैठा था वह जिसका नाम सृष्टि का हर जीव सम्मान से लेता है,
यमराज
भाग (15 ) चित्रगुप्त का लेखा-जोखा
क्या विशाल के कर्म खोले जाएँगे
क्या उसे दंड मिलेगा
या कुछ और
चित्रगुप्त का लेखा-जोखा
द्वार पार करते ही विशाल के भीतर एक अजीब-सी कांपती निःशब्दता फैल गई वह सामने देख रहा था काला प्रांगण पर उसके बीच
चमकता हुआ एक विशाल मंच मंच के थोड़े आगे एक ऊँचा आसन, जिस पर यमराज शांत भाव से बैठे थे उनकी आँखों में न क्रोध था,
न नम्रता बल्कि एक गंभीर,सीधा,सत्य दृष्टि जैसे किसी के भीतर सीधे झांक सकें,
चित्रगुप्त का प्रकट होना
मंच के दाईं ओर धीरे-धीरे एक तेज प्रकाश फैलने लगा उस रोशनी से एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ शांत मुख, कमल जैसे नेत्र, हाथों में चमकते कुछ पन्ने और एक कलम यमदूत ने धीरे कहा
“ये हैं चित्रगुप्त”
जिसे सुनते ही विशाल का मन और भारी हो गया क्योंकि जीवनभर उसने यही सुना था कि चित्रगुप्त हर जीव के कर्म अक्षरशः लिखते हैं सच, झूठ, इच्छा, विचार सब पुकार यमराज ने गंभीर स्वर में कहा विशाल पुत्र अजय आगे आओ उस आवाज़ में न कोई आदेश की कठोरता थी, न स्नेह बस अटल सत्य विशाल कदम बढ़ाता हुआ मंच के बीच जा खड़ा हुआ चित्रगुप्त ने अपने पन्नों को खोला उनके खुलते ही चारों ओर सुनहरा प्रकाश फूट पड़ा,
कर्मों का लेखा
चित्रगुप्त ने पढ़ना शुरू किया इसने बचपन में एक अजनबी को भूख से तड़पते देखा और उसे भोजन दिया विशाल को उस पल की याद आई वह मुस्कुरा दिया चित्रगुप्त बोले
“पूरा पुण्य”
फिर उन्होंने अगला सूत्र पढ़ा यौवन में लोभ से अंधा होकर इसने कई बार धोखा दिय विशाल का सिर झुक गया अर्ध पाप (क्योंकि
कभी-कभी उसने पछतावा भी किया था) फिर एक बार इसने धन पाने की चाह में किसी निर्धन की ज़मीन कपट से ले ली,
पूरा पाप
चित्रगुप्त की आवाज़ सुनियोजित, शांत, पर गहरी थी प्रकाश बदला कभी उजला, कभी धुंधला,कभी धधकता अदृश्य कर्म भी दर्ज फिर
चित्रगुप्त ने एक और पन्ना खोला कई बार बिना बोले मन ही मन दूसरों के लिए दया का भाव रखा
अर्ध पुण्य
विशाल चकित रह गया उसने सोचा क्या मन भी लिखा जाता है चित्रगुप्त बोले कर्म केवल हाथ का नहीं, मन और वाणी का भी होता है सृष्टि कभी अधूरा नहीं लिखती विशाल की आँखें फैल गईं,
सबसे भारी अपराध
फिर चित्रगुप्त बोले पर इसका सबसे बड़ा अपराध अहंकार मंच के ऊपर चित्रों की तरह दृश्य उभरने लगे विशाल खुद को सर्वोच्च समझता हुआ दूसरों को हेय समझता हुआ लालच में मानवता भूलता हुआ चित्रगुप्त बोले,अहंकार किसी भी पुण्य को जला सकता है इसने इसे कई बार गिराया विशाल काँप गया,
अधूरा पुण्य
फिर चित्रगुप्त ने एक पन्ना पलटा इसने कई भलाई की पर बदले की उम्मीद से उसका पुण्य अधूरा है विशाल पूछ बैठा यदि मन में शुद्ध इरादा न हो तो क्या कर्म अधूरा होता है चित्रगुप्त मुस्कुराए हाँ कर्म की जड़ इच्छा में होती है इच्छा अशुद्ध तो फल भी अशुद्ध भाग्य का सत्य चित्रगुप्त बोले इस आत्मा को भाग्य को चुनौती देने की इच्छा थी दृश्य उभरे विशाल देवों को प्रकृति को नियमों को ललकारता हुआ इन्होंने इसे कई अवसर दिए पर यह हर बार वापस उसी मार्ग पर चला गया जहाँ अहंकार सबसे बड़ा गुरु था एक आश्चर्य फिर चित्रगुप्त ने
अंतिम पन्ना खोला वह सुनहरी चमक में नहाया था विशाल चकित हो गया चित्रगुप्त बोले पर इसके भीतर सत्य जानने की भूख कभी पूरी नहीं मरी यही इसे आज यहाँ तक सीधे न्याय के सामने ले आई है यमराज ने पहली बार सहलाते स्वर में कहा
सत्य की तलाश
सबसे बड़ा पुण्य है
विशाल ने धीरे से अपना सिर उठा लिया लेखा पूर्ण चित्रगुप्त ने कहा कर्म खोल दिए गए पाप–पुण्य दोनों स्थिति स्पष्ट अब न्याय होगा यमराज ने शांत संकेत किया और प्रांगण में एक गहरी ध्वनि गूँज उठी,
भाग (16 ) यमराज का न्याय
क्या दंड मिलेगा क्या मुक्ति
या कुछ और,
यमराज का न्याय
प्रांगण में निःशब्द सन्नाटा फैल गया ना हवा हिली, ना कोई स्वर उठा जैसे समय स्वयं ठहर गया हो विशाल मंच के मध्य खड़ा था चित्रगुप्त अपने पन्ने समेट एक ओर खड़े हो गए अब सबकी नज़रें मृत्यु–धर्मराज यम पर टिक गईं यमराज गंभीर, धीर, कर्मफल के स्वामी धर्म का स्वरूप उनकी वाणी में कठोरता नहीं बस सत्य था,
न्याय का प्रथम प्रश्न
यमराज ने पूछा विशाल क्या तुम्हें अपने कर्म स्वीकार हैं विशाल ने काँपती आवाज़ में कहा हाँ स्वीकार हैं यमराज क्या तुम किसी कर्म पर पछताते हो विशाल हाँ कई बार यमराज तो क्या तुम फिर वही करोगे यदि तुम्हें फिर जीवन मिले विशाल कुछ क्षण स्तब्ध रहा उसकी आँखों के आगे पूरा जीवन घूम गया धन की चाह, घृणा, लालच, अहंकार, और अंत में खालीपन उसने सिर झुकाकर कहा नहीं शायद नहीं यमराज
शायद
न्याय में
स्थान नहीं पाता
न्याय का दर्पण
यमराज ने संकेत किया अचानक विशाल के सामने एक विशाल दर्पण उभरा आकाश से बड़ा, पर्वत-सा स्थिर यमराज यह तेरे कर्मों का दर्पण है दर्पण में विशाल का जीवन फिर से उभरने लगा,बचपन की मासूमियत युवावस्था की महत्वाकांक्षा धन की भूख, धोखे, भलाई, पश्चाताप, अहंकार, प्रकृति का प्रहार और अंत हर पल जैसे उसके सामने नंगा खड़ा था विशाल से दृश्य सहा नहीं गया। उसने आँखें बंद कर लीं यमराज सत्य से आँखें मूँद लेने से सत्य बदल नहीं जाता
पाप–पुण्य का तराजू
दर्पण गायब हुआ उसकी जगह एक विशाल तराजू प्रकट हुआ एक पलड़ा सफेद प्रकाश का, दूसरा काले धुएँ का चित्रगुप्त ने दोनों ओर विशाल के कर्म प्रवाह रूप में रखे,पाप कई बार भारी हुए पर हर बार कुछ पुण्य उन्हें संतुलित कर देते तराजू कभी पूर्ण रूप से किसी एक ओर नहीं झुका विशाल चौंक गया वह न पूर्ण पापी था न पूर्ण पुण्यात्मा,वह भटका हुआ मानव भर था,
यमराज का निर्णय
यमराज बोले तेरा जन्म अति साधारण नहीं था भाग्य ने तुझे कई अवसर दिए तूने कई खोए कुछ साधे तूने धन की चाह में अहंकार को बढ़ाया पर अंत मेंप्रकृति के आगेझुक गया यह झुकना तेरा सबसे बड़ा पुण्य बन गया विशाल ने आश्चर्य से सिर उठाया यमराज बोले स्वीकृति सभी पाप नहीं धोती पर अहंकार पिघल जाता है वीरता और कमी यमराज तूने कुछ भलाई दिखावे को की तो उसका फल सीमित है पर कुछ भलाई दिल से भी की उसका फल तेरे साथ रहेगा,चित्रगुप्त ने सिर हिलाया न्याय का मूल यमराज मनुष्य का केवल कर्म ही नहीं कर्म का इरादा भी आंका जाता है दि अच्छा कर अहंकार रखे तो पुण्य कम हो जाता है यदि अच्छा कर नरम रहे तो पुण्य बढ़ जाता है विशाल शांत सुनता रहा,
दंड या मार्ग
विशाल ने धीरे पूछा क्या मुझे नर्क मिलेगा यमराज शांत स्वर में तू पूर्ण पापी नहीं विशाल ने काँपते हुए कहा क्या मुझे स्वर्ग मिलेगा यमराज तू पूर्ण पुण्यात्मा भी नहीं,विशाल स्तब्ध तो फिर यमराज मनुष्य दोनों का मिश्रण है और तेरा भी यही सत्य है,
निर्णय
यमराज नर्क उनके लिए है जो स्वार्थ में डूबकर पाप रचते हैं और कभी पश्चाताप नहीं करते,स्वर्ग उनके लिए जो स्वार्थ छोड़ भलाई करते हैं और नम्र रहते हैं तू पश्चाताप जानता है सत्य की तलाश तेरे भीतर थी इसलिए न तुझे नर्क दिया जाएगा न स्वर्ग विशाल चौंक गया तो फिर यमराज तुझे अनुभव का मार्ग मिलेगा,
चयन नहीं—फल
यमराज बोले तुझे उस लोक में भेजा जाएगा जहाँ तू अपने कर्मों का अनुभव करेगा वह दंड नहीं सीखा है और उसके बाद तुझे नया जन्म मिलेगा विशाल की आँखें नम हो गईं क्या मैं फिर मानव बनूँगा यमराज मनुष्य सबसे कठिन योनि है पर सबसे योग्य भी अवसर फिर मिलेगा पर समय निश्चित नहीं,
मार्ग का द्वार
अचानक दूर एक नया मार्ग खुला ना प्रकाश, ना अंधकार बस संतुलन मध्यम लोक यमराज बोले वह मार्ग तुझे तेरी सीख देगा जो सीख लेगा वही आगे बढ़ेगा विशाल धीरे-धीरे उस मार्ग की ओर बढ़ा,न डर न उत्साह बस शांति उसे पहली बार लग रहा था वह सत्य के निकट है,
भाग (17) नर्क–लोक / मध्य–लोक / स्वर्ग का अनुभव
लोकों का अनुभव
(नर्क-लोक / मध्य-लोक / स्वर्ग) यमराज के आदेश पर विशाल के आगे अद्भुत मार्ग खुला ना प्रकाश, ना अँधेरा बस एक संतुलित धूसर-सा संसार यमदूत ने संकेत किया, और विशाल धीरे-धीरे उस द्वार में प्रवेश कर गया,
मध्य-लोक की भूमि
जैसे ही उसने सीमा पार की, उसने खुद को एक अनोखे प्रदेश में पाया,न गर्मी, न सर्दी, न सुख, न दुख सब कुछ जैसे आधा,यह जगह ना स्वर्ग थी, ना नर्क ये मध्य-लोक था इस लोक में वे आत्माएँ रहती थीं जिनके कर्म न पूर्ण पाप न पूर्ण पुण्य सिद्ध हुए थे हर आत्मा धुंधली-सी जैसे जीवन और मृत्यु दोनों से अधूरी,
कर्म का अनुभव
यहाँ हर आत्मा अपने जीवन के अनुभवों को फिर से जीती थी पर एक अंतर के साथ जो दुख उसने दूसरों को दिया, वह स्वयं महसूस करती जो सुख उसने बाँटा, वह स्वयं पाती,एक आत्मा घंटों तक रोए जा रही थी क्योंकि जीवन में उसने किसी मासूम सेकपट किया था दूसरी आत्मा शांत थी जैसे किसी की मदद करने का सुकूनउसे भीतर गर्माहट दे रहा हो विशाल ध्यान से सब देख रहा था,
अपने कर्मों का फल
कुछ ही क्षणों में अचानक उसके चारों ओर दृश्य उभरने लगे उसे वही दिखा जो उसने जीवन में किया था कहीं उसने धन के लिए किसी गरीब से अन्याय किया अब उसी पीड़ा कोवह स्वयं महसूस कर रहा था उसका दिल टूटने लगा जैसे मानसिक यातना देह से भी गहरी हो फिर एक दृश्य जिसमें उसने एक भूखे साधु को भोजन कराया था वह दृश्य धीमी रोशनी की तरह उसके मन को शांत करने लगा वह समझ गया कर्म अमिट है जहाँ जाता है, वहाँसाथ जाता है,
ज्ञान के स्वर
मध्य-लोक में ध्वनि नहीं पर अनगिनत विचार हुंकार बनकर हर ओर गूँजते थे कोई कह रहा था काश मैंने थोड़ा और दया दिखाई होती कोई रो रहा था मुझे दूसरों की पीड़ा का अंदाजा ही नहीं था कोई शांत मैंने नम्रता के साथ जीवन जिया इन विचारों की गूँज विशाल की आत्मा को स्पष्ट सत्य सिखा रही थी कर्म ही सच्चा धन है,
नर्क-लोक की झलक
मध्य-लोक के एक छोर पर एक भयावह द्वार था काला और अंतहीन दूर से चीखें सुनाई देतीं आग की गंध पीड़ा की लहरें यमदूत ने बताया यह उनके लिए है जिन्होंने पाप किए और कभी स्वीकार नहीं किया विशाल कदम भर आगे बढ़ा दृश्य उभरा आत्माएँ पीड़ा में चीख रहीं पर उनकी देह नहीं थी,फिर भीदर्द जीवन से गहरा उन्हें किसी दंडदाता से नहीं बल्कि अपने ही कर्मों से दंड मिल रहा था जिसने दूसरों को जलाया, वह स्वयं जल रहा था जिसने किसी को तड़पाया, वह स्वयं तड़प रहा था दंड किसी बाहरी शक्ति का नहीं अंतर्मन का था विशाल काँप गया
स्वर्ग-लोक की झलक
दूसरी ओर एक उजला द्वार जहाँ कोई शोर नहीं सिर्फ संगीत न धूप, न छाँव एक मध्यम प्रकाश जो आत्मा में शांति भर दे कुछ आत्माएँ
ध्यान में मग्न कुछ परम आनंद में उनके चेहरे पर दर्प नहीं बस कृतज्ञता यमदूत ने कहा ये उनके लिए है जिन्होंने पुण्य किया और अहंकार नहीं रखा विशाल ने धीरे पूछा स्वर्ग में सुख है यमदूत सुख से अधिक शांति है,
मध्यम लोक का उद्देश्य
विशाल ने कहा मुझे क्यों लाया गया यहाँ यमदूत सीखने क्योंकि तू पापी नहीं पर पुण्यात्मा भी नहीं था इतना समझ कि जिसने दुख दिया
उसे दुख मिलता है और जिसने भलाई की उसे शांति मिलती है स्वर्ग-नर्क कहीं बाहर नहीं मन के भीतर हैं विशाल गहरी सोच में डूब गया,
आत्मा का परिवर्तन
कई समय (या शायद समय यहाँ था ही नहीं) विशाल अपने कर्मों को समझने लगा दड अब पीड़ा नहीं सीख लगने लगा धीरे-धीरे उसके भीतर का अहंकार पिघलने लगा वह शांत होने लगा स्वीकार करना सीखने लगा,
अंतिम क्षण
एक दिन (या शायद एक अवस्था) यमदूत वापस आया तू अब तैयार है विशाल किसके लिए यमदूत
पुनर्जन्म के लिए
नई शुरुआत के लिए
विशाल शांत था अब उसे न डर था,न लोभ उसके भीतर एक ही विचार था मैं सीखकर जाऊँगा द्वार खुला और प्रकाश की धारा फैलने लगी,
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