MANUSHY CHAAHE KUCH BHI KAR LE,VAH PRAKRTI/ISHWAR/BHAAGYE,PARE NAHI JA SAKATA,JIVAN OR MRUTYU BRAHMA OR VISHNU DUARA PURV NIRDHARIT HAI #PART2

20 PARTS OF THIS STORY, WHICH IS STORY STORIES IS IMAGINARY

जीवन और मृत्यु ब्रह्मा और विष्णु द्वारा पूर्व निर्धारित हैं

RAJA KUMAR PARAJAPATI

11/13/2025

इस ब्लॉग में 6 से 10 तक की कहानी है

भाग (6 ) ब्रह्मा–विष्णु का दर्शन (स्वप्न)

पहली हार के बाद विशाल का जीवन मानो राख में बदल गया था उसकी हठ अब भी जीवित थी, पर मन भीतर से किसी अनजान अँधेरे में डगमगा रहा था रातें अब उसके लिए भय और बेचैनी का समय बन गई थीं वह सोचता कैसे वापस उठूँ कैसे जीतूँ,इन्हीं विचारों के बोझ में एक रात उस पर गहरी नींद छा गई और वहीं से उसके जीवन का सबसे अनोखा अध्याय शुरू हुआ,

एक अद्भुत स्वप्न की शुरुआत

अचानक उसने अपने आप को एक अजनबी प्रदेश में पाया चारों ओर धुंध सफेद,मृदु, शांत लेकिन इस शांति के भीतर एक अकल्पनीय ऊर्जा थी वह आगे बढ़ा,जैसे-जैसे वह धुंध को चीरता चला गया, वैसे-वैसे रोशनी बढ़ने लगी अचानक आकाश विभाजित हुआ और एक स्वर्गीय आभा उसके सामने खुली,

ब्रह्मलोक का दृश्य

वह जहाँ था वह ब्रह्मलोक था असीम प्रकाश, शांत वातावरण,अनंत श्वेतता सुरम्य गीतों की गूँज, सुगंध में मिली,एक अव्यक्त पवित्रता जिस भूमि पर उसके पाँव थे, वह सोने जैसी चमकती, लेकिन उसमें ताप नहीं था केवल दिव्यता थी ध्यान उसकी दृष्टि ऊपर गई
वहाँ तीन कमल ख़ुशबू बिखेरते हुए तैर रहे थे तीन कमल लेकिन मध्य में बैठा था एक सृजनकर्ता चार मुख,अनंत वैभव,ब्रह्मतेज उनके चारों ओर मंडरा रहा थावह ब्रह्मा थे विशाल अचंभित होकर झुक गया,ब्रह्मा ने कहा उठो, वत्स आवाज़ नदी की तरह मधुर, और पर्वत की तरह अटल थी ब्रह्मा का वचन ब्रह्मा बोले “मनुष्य अपने कर्म करता है,और हम उसकी रेखाएँ बनाते हैं,यह संसार उसके अनुसार चलता है जो लिखा गया है तुम अपने आप को अजेय समझ बैठे हो,पर तुम्हारी समझ अधूरी है विशाल ने पूछा यदि सब पूर्व निर्धारित है तो कर्म का क्या अर्थ,ब्रह्मा मुस्कुराकर कर्म मनुष्य का धर्म है भाग्य उसके कर्मों की सीमा,नदियाँ बहती हैं,पर सीमाएँ किनारे तय करते हैं तुम सोचते हो कि तुम किनारा बदल सकते हो पर नदी जैसे अपने मार्ग में बहेगी, वैसे ही तुम अपने भाग्य में बहोगे,विशाल मौन उसकी आँखों में सवाल थे, विरोध था,पर शब्द नहीं,

विष्णु का प्रकट होना

अचानक ब्रह्मलोक में गंभीर शंख ध्वनि गूँजी नभ में नीली आभा फैल गई एक अनंत रूप पद्म पर अधिष्ठित चार भुजाओं वाला, शांत, गंभीर, करुणामय वे भगवान विष्णु थे उनकी उपस्थिति से सृष्टि और शांत हो गई विशाल के सिर के बाल खड़े हो गए विष्णु मुस्कुराए “वत्स,हमसे प्रश्न पूछना चाहते हो,विशाल हाँ में सिर हिलाया क्यों मनुष्य अपने जीवन पर अधिकार नहीं रखता विष्णु बोले,अधिकार उसे है, पर परिणाम पर नहीं तुम मृग की तरह भागते हो धन की ओर, सुख की ओर,अमरत्व की ओर पर तुम्हारा रास्ता तुमसे पहलेनिर्धारित हो चुका है क्योंकि प्रत्येक जीवअपने पूर्व कर्मों की डोर में बंधा है तुम यहाँ आकर भी सत्य नहीं देख रहे
क्योंकि तुम्हारी आँखें अभी भी अहंकार से ढँकी हैं,

आत्मा का दर्पण

विष्णु ने अपनी एक भुजा से आकाश में संकेत किया वायु एकत्रित हुई और उसके सामने एक दर्पण प्रकट हुआ दर्पण ऐसा जो रूप नहीं, आत्मा को दिखाता था विशाल ने उसमें देखा पर जो दृश्य उसने देखा, उसका हृदय काँप उठा वहाँ एक लौ थी जो जल रही थी, पर उसके चारों ओर काली परछाइयाँ उसे घेर रही थीं विष्णु बोले यह तुम्हारे भीतर की आकांक्षा है आग जो तुम्हें आगे बढ़ाती है,पर जब वह अहंकार बन जाती है, तो काली परछाइयाँ हर सुख को निगल लेती हैं तुम्हारी लौ अभी जल रही है, पर परछाइयाँ घनी हो रही हैं,

विशाल का विरोध

विशाल ने कहा अगर सब लिखा है तो मुझे दोष क्यों क्यों मैं दर्द झेलूँ विष्णु बोले यह तुम्हें सीख देने के लिए है जीवन भोगने के लिए नहीं, सीखने के लिए है तुम अहंकार में डूबकर भाग्य को चुनौती देने चले अतः भाग्य ने तुम्हें पहली शिक्षा दी है यह
केवल आरंभ है,

ब्रह्मा का अंतिम संदेश

ब्रह्मा बोले तुम्हें अभी और देखना है,अभी और जानना है संसार यूँ ही नहीं चलता हम केवल रचना करते हैं,नियंत्रण नहीं नियंत्रण
प्रकृति के हाथ में है वह सब जानती है, सब करती है तुम उसके आगेmकुछ नहीं,

स्वप्न का अंत

तेज प्रकाश चारों ओर फैला विशाल घबराकर चिल्लाया नहीं,मुझे और बताइए पर प्रकाशतेज़ होता गया और सबकुछ गायब अचानक
उसने पाया वह अपने ही कमरे में पसीने से भीगा पड़ा था हृदय तेज़ धड़क रहा था वह स्तब्ध था क्या यह सपना था या सत्य का साक्षात्कार वह समझ नहीं पाया,पर ब्रह्मा और विष्णु के शब्द उसके मन परअमिट हो चुके थे,तुम्हारी लौ जलती रहेगी पर प्रकृति के आगे तुम कुछ नहीं,

भाग (7 ) संघर्ष और राग-द्वेष

स्वप्न से जागने के बाद विशाल का मन कँपता हुआ दीपक बन गया था आँधी भी थी,औरआस भी उसने आँखें मलते हुए बिस्तर से उठने की कोशिश की, पर शरीर किसी अनजाने बोझ से दबा था मानो उसके भीतर कुछ टूट चुका हो और कुछ नया जन्म ले रहा हो कमरे की दीवारों पर सुबह की हल्की रोशनी थी, पर उसके भीतर रात अभी भी जिंदा थी उस स्वप्न ने उसे छिल दिया था,

अहंकार का शोर

आखिर वह सोचने लगा मैं क्यों हारूँ क्यों मानूँ कि मैं कुछ नहीं ब्रह्मा-विष्णु के वचन उसके भीतर एक पुकार की तरह गूँजते,पर उसका अहंकार उन्हें नकारने को आतुर थावह बोला हाँ, मैं बंधा हूँ,पर किसके द्वारा उसकी आत्मा सवालों से जलने लगी,

नए लक्ष्य की आग

कुछ दिन बाद उसके भीतर नया संकल्प उभरा अगर प्रकृति आगे है तो मैं उसका मार्ग ही सीखूँगा। वही मुझे मेरी मंज़िल तक ले जाएगी यह सोचकर उसने पुनः प्रयास करने का निश्चय किया लेकिन इस बार उसका लक्ष्य और बड़ा,और कठिन था पहली बार वह भक्ति, अध्यात्म और ज्ञान तीनों को अपनाने के लिए तैयार हुआ पर उसके अंदर गहराई में एक चुभन थी पहली हार क्यों मिली यही प्रश्न धीरे-धीरे उसके भीतर राग-द्वेष बना,

द्वेष का जन्म

वह सोचता जिन्होंने मुझे रोका, जिन्होंने मुझे नीचे गिराया वे मुझसे आगे कैसे रहेंगे द्वेष धीरे-धीरे उसके स्वभाव में उतरने लगा पहले
वह अपनी जीत के लिए लड़ता था, अब वह दूसरों को हराने के लिए दौड़ने लगा यह बदलाव सूक्ष्म था पर घातक,धीरे-धीरे अहंकार की राख में एक नई आग जलने लगी और वो थी ईर्ष्या,

भक्ति की ओर – दुविधा

कुछ समय तक उसने पूजा-पाठ शुरू किया ध्यान जप मंत्र योग सब कुछ किया वह घंटे-घंटे बैठा रहता और स्वप्न का अर्थ खोजता पर जब ध्यान टूटता तो भीतर से आवाज़ उठती क्यों किया किसलिए उसके मन में दो ध्रुव बन गए,

ज्ञान
अहंकार

और वे दोनों एक-दूसरे से टकराने लगे धीरे-धीरे मन का संतुलन कमज़ोर होने लगा कभी वह ईश्वर के चरणों में
पूरी तरह समर्पित होता, कभी चिल्लाकर कहता मुझे मेरे भाग्य से क्यों बाँधा,

राग और द्वेष की लपटें

समय बीतता गया अब उसके भीतर तीन चीज़ें बढ़ने लगीं,

आकांक्षा ,असंतोष ,कठोरता

उसकी साधना,भक्ति से हटकर,शक्ति-प्राप्ति का साधन बन रही थी वह मन-ही-मन सोचता जब ईश्वर मुझसे मिल चुके हैं,तो मैं साधारण क्यों रहूँ वह स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगा और यहीं से उसके भीतर धीमी-धीमी अंधकार उभरने लगा,

दूसरा संकेत

एक शाम ध्यान करते-करते उसे लगा जैसे कोई हवा में पुकार रहा हो उसने आँखें बंद कीं पर इस बार स्वप्न जैसा प्रकाश नहीं बल्कि
धुआँ दिखाई दिया उस धुएँ ने कानों में फुसफुसाया “ज्ञान का मार्ग सुन्दर है,पर शक्ति का मार्ग तेज़ है” उसका हृदय तेज़ी से धड़कने लगा वह स्वर अदृश्य था, पर आकर्षक ऐसा जैसे कोई गुप्त रहस्य प्रकट करना चाहता हो और उसी क्षण उसके भीतर एक नई जिज्ञासा जन्मी क्या भाग्य को चुनौती दी जा सकती है उसने धीमी आवाज़ में कहा मैं जानना चाहता हूँधुआँ हँसा मूर्तिहीन पर जीवित तब तैयार रहो उस मार्ग पर चलने के लिए जिस पर कम लोग चलते हैं धुआँ धीरे-धीरे गायब हो गया विशाल
सिहर उठा यह पहली बार था जब उसने ईश्वर के विपरीत दिशा का स्पर्श महसूस किया,

भाग (8 ) परिवार की हानि — प्रकृति का पहला

करारा जवाब

स्वप्न जैसा धुँआ जब उस रात हवाओं में घुला,विशाल ने नहीं समझा,कि यह भाग्य के संघर्ष की पहली सीढ़ी थी और पहला प्रहार अब आने वाला था,

माता की आँखों में अनजाना भय

सुबह जब विशाल उठा,घर का वातावरण कुछ बदला-सा था माँ के चेहरे पर एक भय एक अजीब चिंता तैर रही थी उसने पूछा “माँ, क्या हुआ माँ धीमे बोली कल रात मैंने भी एक सपना देखा एक काले मार्ग से यमदूत गुजर रहे थे तेरी ओर पर रुक गए यह कहकर माँ ने उसका माथा सहलाया बेटा, तू ठीक है न,विशाल ने हल्की हँसी दी सपने हैं माँ पर उसके भीतर एक नुकीला काँटा चुभ गया,उसे लगा मानो किसी अदृश्य शक्ति ने उसके घर में कदम रखा हो,

छाया का बढ़ना

कुछ दिनों तक सब सामान्य लगता रहा,पर धीरे-धीरे घर की दीवारें ठंडी होने लगीं रसोई में बिना आग के धुँआ उठता,रातों में आँगन में कदमों की आवाजें आतीं,और कुत्ते खाली हवा पर भौंकते रहते पिता डाँट देते,तुम सब वहम करते हो,पर माँ की आँखों में वह डर और गहरा हो गया विशाल अक्सर ध्यान लगाता,पर अब उसे ईश्वरीय शांति कम,काली छायाएँ ज्यादा दिखतीं धुएँ की आवाज कभी-कभी फिर गूँजती,तू मार्ग पर है पहला मूल्य माँगेगाविशाल घबराता, पर दिल में एक अजीब आकर्षण उसे आगे बढ़ाता,

प्रकृति की चेतावनी

एक रात भारी आंधी चली आकाश ऐसा लग रहा था जैसे पृथ्वी पर टूट पड़ेगा बिजली लगातार चमक रही थी,और घर की खिड़कियाँ हवा से काँप रही थीं माँ दीपक लेकर मंत्र पढ़ती बैठी थीं वातावरण भारी, गहरा और अशुभ था विशाल बाहर देखने गया तभी उसने देखा काले वस्त्र में एक आकृति दूर पेड़ के पास खड़ी थी वह उसकी ओर देख रही थी बिना आँखों के देख रही थी विशाल जड़ हो गया अचानक बिजली कड़की और आकृति गायब,वह घर की ओर भागा माँ ने उसे पकड़ लिया बेटा कुछ मत देख अंधकार जब बुलाता है तो छीन भी लेता है विशाल कुछ कह पाता, इससे पहले घर में अजीब सी गंध भर गई,जैसे जलती लकड़ी, पर बिना आग के माँ चिल्ला उठींये संकेत है पर पिता फिर बोले“डरना बंद करो,कुछ नहीं होगा और यही सबसे बड़ी भूल थी,

सबसे बड़ा प्रहार

कुछ दिन बाद पिता किसी काम से शहर गए,रात तक लौटे नहीं माँ बैचैन थीं विशाल सड़क तक जाता बार-बार पर खालीपन उत्तर देता,सुबह दरवाज़े पर भीड़ जमा थी एक बैलगाड़ी, जिस पर सफेद कपड़ा ढँका था विशाल दौड़ा दुनिया सुनसान हो गई,उस सफेद कपड़े के नीचे उसके पिता निर्जीव पड़े थे किसी दुर्घटना में मृत्यु हुई थी ऐसा लोग कहते थे पर विशाल समझ चुका था यह दुर्घटना नहीं संकेत था पहला मूल्य चुक गया,माँ रोते-रोते बेहोश हो गईं विशाल निर्विकार आकाश को देखता रहा,उसे ब्रह्मा-विष्णु याद आए और उनका वचन,मानव प्रकृति से आगे कुछ नहीं कर सकता,और उस धुएँ की आवाज भी पहला मूल्य माँगेगा दोनों अब सत्य बन चुके थे,

अग्नि संस्कार

अगले दिन चिता जली विशाल लकड़ियाँ सजाता रहा,पर हर लकड़ी उसके भीतर कुछ जलाती जाती,जब अग्नि उठी,माँ चिता पर गिर पड़ी,मेरे पति हमें छोड़कर विशाल तड़प उठा क्यों उसने अग्नि से पूछा क्यों पर अग्नि उत्तर नहीं देती,सिर्फ भस्म करती है उसी तरह भाग्य उत्तर नहीं देता सिर्फ लेता है धुएँ में विशाल को क्षण-भर वही काली आकृति फिर दिखी और फिर गायब,

माँ की हालत

इस घटना के बाद माँ गुमसुम हो गईं बातें कम,आँसू ज़्यादा घर में भोजन बनना बंद,दीपक खुद बुझ जाते विशाल हमेशा काली आकृति के बारे में सोचता क्या वह उसे बुला रही थी क्या पिता उसके कारण गए,वह त्रासदी और अपराधबोध के बीच फँस गया उसका हृदय धीरे-धीरे निर्मलता खोता गया,

दूसरी आग

एक रात माँ की तबियत अचानक बिगड़ गई वह जैसे अदृश्य लपटों में जल रही थीं उनका शरीर ठंडा था,पर माथा तप रहा था वह बार-बार कहतीं
उससे दूर रह,वह तुझे भी ले जाएगा,विशाल दवा-डॉक्टर करा रहा था,पर कुछ काम नहीं तीन दिन बाद माँ धीरे-धीरे चली गईं एक फुसफुसाहट
छोड़कर,
प्रकृति सब जानती है विशाल अब पूर्णतः अकेला था पिता छिन गए माँ छिन गईं उसकी दुनिया राख बन गई,

पहला सबक

उसकी आँखों में आग नहीं,खालीपन था शब्द नहीं,सन्नाटा था अब उसे समझ आया,प्रकृति पहले चेतावनी देती है फिर छीन लेती है महत्वाकांक्षा अब भी थी,पर उसके अंदर एक नई दरार पड़ चुकी थी वह चिल्लाया अगर भाग्य तय है तो मैं उसका रहस्य खोलकर रहूँगा उसका दर्द अब ज़िद बन गया यही राग-द्वेष का दूसरा रूप था अब वह काली राह पर कदम रख चुका था,

भाग (9 ) अकेलापन और सत्य की खोज

माँ-बाप की मृत्यु के बाद घर तो वही था,पर अब दीवारें भी अनाथ हो गई थीं रसोई की चूल्हा-पट्टी जैसे इंतज़ार छोड़ बैठी हो, आँगन का पीपल बिना हवा के भी सूना-सूना झूमता,और रातें मानो रात न होकर किसी लंबी,कभी न ख़त्म होने वाली परछाई बन गई हो हर खाली कोने में
विशाल को लगता कोई उसे देख रहा है कभी माता-पिता,कभी वह काली छाया,कभी खुद का भय,

अकेलापन – शून्य का जन्म

दिनभर वह चुप रहता,किससे बोले क्यों बोले गाँव के लोग पहले बहुत आते-जाते थे, पर अब धीरे-धीरे दूर होने लगे कुछ सहानुभूति से, कुछ भय से,
कुछ अंधविश्वास से कई लोगों ने तो पीछे से कहना शुरू कर दिया,इसके घर पर कुछ अपशकुन है जो लोग कल तक उसका था,अब वही पराया हो चुका था और वह इन्हीं परायों के बीच एक सशरीर भूत बनकर रह गया,

भीतर की यात्रा

एक रात गहरी नींद के बीच उसकी आँख खुली वह उठा और बिना सोचे आँगन में चला गया चाँद की रोशनी धुँधली थी मानो अपनी जगह से खुद डर रही हो विशाल पीपल के नीचे बैठ गया,आँखें बंद कीं,पहले कुछ आवाज़ें फिर सन्नाटा फिर अंदर उतरती हुई,एक अजीब सिहरन दिमाग में अनगिनत सवाल मेरा जीवन ऐसा क्यों बना क्या सचमुच सब पहले से तय है क्या यही प्रकृति की इच्छा है अचानक मन में तीव्र झटका लगा दूर से कोई गीत जैसा कुछ सुनाई दिया धीमा मधुर पर भारी उन स्वरों में दुख था, अहंकार नहीं गहराई थी, भ्रम नहीं मर्यादा थी,लोभ नहीं उन्होंने विशाल को शांत किया और उसकी आँखें जैसे किसी दूसरे संसार में खुल गईं,

साधु का आगमन

अगले दिन सूरज ढला ही था कि गाँव की पगडंडी पर एक वृद्ध साधु आते दिखे दाढ़ी सफेद,नेत्र शांत, हाथ में कमंडल, कंधे पर जटा वह सीधे विशाल के दरवाज़े आकर खड़े हुए बिना कुछ कहे अंदर चले आए,जैसे उनकी प्रतीक्षा,पहले से हो विशाल चौंका आप कौन साधु मुस्कुराए,“जिसे तू खोज रहा है,
वही तुझे खोजते हुए आया है”
विशाल स्तब्ध साधु आँगन में बैठे और 'बोले दर्द यदि आँख बन जाए तो सत्य दिखने लगता है विशाल उनके सामने जैसे बच्चा बन बैठा मेरे माँ-बाप क्यों चले गए क्या मैंने कुछ गलत किया क्या मैं शापित हूँ साधु बोले न मृत्यु अचानक आती है,न जीवन अनायास मिलता है सब कुछ पहले से बँधा नियत है विशाल अंदर से टूट गया“तो फिर प्रयास का क्या अर्थ मेरी इच्छा का क्या मूल्य साधु धीमे बोले इच्छा मार्ग देती है पर मार्ग भाग्य तय करता है,

भाग्य और पुरुषार्थ का रहस्य

विशाल पूछ बैठा क्या इंसान कुछ बदल नहीं सकता साधु बोले बदल सकता है खुद को पर परिणाम वही होगा जो लिखा है विशाल और उलझ गया साधु उसकी ओर देखते हुए बोले संसार खेल है प्रकृति खिलाडी और हम सब मोहरे मोहरा चल सकता है परजीत-हार पहले से तय है विशाल गहरी साँस लेता है आँखें भर आती हैं तो मैं जो कर रहा हूँ वह सब व्यर्थ न व्यर्थ न पूर्ण,तू कर्ता नहीं, माध्यम है साधु धीरे-धीरे उठेऔर बोले तू सत्य जानना चाहता है पर सत्य तुझसे मूल्य माँगेगा क्या तू देना चाहता है विशाल क्षणभर चुप रहा फिर भारी आवाज़ में बोला मेरे पास अब खोने को कुछ नहीं साधु मुस्कुराए सबसे खतरनाक वाक्य और सबसे शक्तिशाली भी,

दीक्षा

साधु ने उसे गृह छोड़ने को कहा विशाल तुरंत तैयार था क्योंकि वह पहले ही खाली हो चुका था सिर्फ एक थैली और माता-पिता की तस्वीरें लेकर वह साधु के पीछे चल पड़ा,गाँव धीरे-धीरे पीछे छूटने लगा पर स्मृतियाँ चलती रहीं पगडंडी वन में बदल गई वन पहाड़ में पहाड़ बादलों में चलते-चलते रात उतर आई चाँद कभी दिखता, कभी छिप जाता वे किसी सुनसान पर्वत की गुफ़ा तक पहुँचेसाधु बोले यही तेरा पहला पड़ाव है अंदर शांति थी इतनी गहरी कि साँस भी अपराध लगे,

अंतर्मन का सामना

साधु ने कहा बैठ आँखें बंद कर जो दिखे कहना विशाल ध्यान में बैठ गया पहले माँ-बाप का रूप फिर उनकी मृत्यु फिर अकेलापन आँखों से आँसू बहने लगे,फिर अचानक अँधेरा काली आकृति धुँआ और एक आवाज तू अभी तैयार नहीं विशाल घबरा कर आँख खोल देता है साधु पूछते हैं क्या देखा विशाल बताता है साधु धीमे हँसते हैं अच्छा है भय आगे का द्वार है,

साधना का आरंभ

दिन ध्यान, अध्यात्म, सूक्ष्म ज्ञान,और मौन में बीतने लगे साधु कभी समझाते कभी चुप रहते कभी घंटों विशाल को स्वयं से लड़ते देखते,कभी उसे मन के अंधकार में उतरने देते,विशाल भीतर बदलने लगा,राग धीरे-धीरे मंद हुआ,पर द्वेष अब भी बचा था एक अंगार की तरह जो दबा तो था पर जला सकता था,

पहली झलक – सत्य का संकेत

एक दिन ध्यान में उसे एक तेज प्रकाश दिखा उस प्रकाश में एक श्लोक-सा स्वर्ग कर्म तेरा है परिणाम मेरा वह चौंक उठा कौन स्वर्ग प्रकृति विशाल
रो पड़ा उसके मन का भारीपन कुछ हल्का हुआ पर भ्रम और बढ़ गया,

साधु का रहस्य

एक रात विशाल ने पूछा गुरुदेव, आप इतने सब कैसे जानते हैं साधु शांत स्वर में बोले क्योंकि मैं भी तेरे जैसा था विशाल सन साधु बोले मैं भी प्रकृति को चुनौती देने निकला था और मूल्य चुका कर लौट आया इसलिए अब सिखा रहा हूँ ताकि तू अंधा न रहे विशाल गहराई से समझने लगा कि ज्ञान
सीखकर नहीं,झेलकर मिलता है

अंतिम पंक्ति — चरण बदलते हैं

कुछ महीनों में वह बहुत बदल चुका था पर अभी यात्रा शुरू ही थी एक सुबह गुरु बोले अब तुझे आगे जाना होगा वहाँ जहाँ सत्य का दूसरा द्वार है विशाल
समझ गया यह नए संघर्ष की पुकार थी उसने गुरु के चरण छुए, और पहाड़ी रास्ते पर अकेला चल पड़ा पीछे गुफ़ा थी जहाँ उसने स्वयं को पहली बार देखा था आगे वन था जहाँ वह भाग्य से दूसरी बार भिड़ेगा,

भाग (10 ) कर्मों का परिणाम

महापुर का वह गाँव अब विशाल को पहचानने लगा था पहले वह लड़का जो धन के पीछे पागल था अब वही उन गलियों में घूम-घूमकर ग़रीबों, असहायों और रोगियों की मदद करता था उसके जीवन में पहली बार मैं के स्थान पर हम आ गया था लेकिन भाग्य अब भी अपने पन्ने पलट रहा था धीरे-धीरे, शांति से जैसे किसी को इंतज़ार हो सही समय पर वार करने का,

नई शुरुआत

साधु की दीक्षा लेने के बाद विशाल का मन अधिक स्थिर हो चुका था वह अब गाँव के लोगों को हर्बल औषधियाँ बनाकर देता, रात-रात भर बीमारों के पास बैठता, और कभी-कभी पहाड़ की चोटी पर जाकर ध्यान में लीन हो जाता लोग समझने लगे यह लड़का बदला है और सच में, बदला भी था पर भीतर कहीं उसका एक हिस्सा अब भी दुनिया को जीतने की चाह रखता था, जो कभी-कभी जाग उठता था और उसकी आत्मा में हलचल मचा देता था

कर्मों की धूल

एक शाम, गाँव में भयंकर महामारी फैल गई बच्चे, स्त्रियाँ, वृद्ध कोई भी अछूता नहीं रहा लोगों ने विशाल से कहा तुम ही कुछ करो वह रात दिन एक कर देता जंगल से औषधियाँ लाता, पीड़ितों की सेवा करता कुछ ठीक हो जाते, कुछ मृत्यु की बाहों में सिमट जाते एक बच्चे की मृत्यु ने विशाल के भीतर दर्द और आग भर दी उस बच्चे की माँ चीख-चीखकर कहती, देवता भी क्यों ले जाते हैं छोटे बच्चों की जान विशाल के पास कोई उत्तर नहीं था वह सिर्फ रो सकता था,

भाग्य की सख़्ती

उसने सोचा किसी बड़े नगर जाकर उच्च चिकित्सा सीखूँ और वह गया भी पर वहाँ धन और पहचान के पुराने आकर्षण फिर उसकी ओर बढ़ने लगे लोगों ने उसे सहयोग दिया, उसकी प्रतिभा को सराहा, और धीरे-धीरे वह फिर एक व्यापारिक दौड़ में उतरने लगा वह फिर ऊँचे सपनों का पाठ पढ़ने लगा,हैरानी की बात यह थी वह जितना मदद करता, उतना ही संकट उसे घेरता मानो उसके पिछले कर्म हर नेक प्रयास का बदला किसी न किसी रूप में ले रहे हों,

परिणाम का पहला साक्षात

कुछ ही महीनों में उसके व्यापार में भारी नुकसान हुआ धोखा, छल, झूठ सबका वार उसी पर हुआ जो लोग कल तक उसके प्रशंसक बने फिरते थे,
आज वही लोग उसके रास्ते से किनारा करने लगे उसने बार-बार खुद से पूछा मैंने तो अच्छा ही किया फिर भी मेरे साथ बुरा क्यों उसके मन में फिर वही साधु के शब्द गूँज उठे कर्मों का हिसाब कभी खत्म नहीं होता, जो बोओगे वही उगेगा,

घाटी में वह रात

एक रात, हार, दर्द और भ्रम में विशाल जंगल की ओर भागा बरसात हो रही थी आँखों से आँसू, दिल में तूफान वह चिल्लाया हे ब्रह्मा यदि सब पहले से लिखा है तो मैं क्यों प्रयास करूँ अचानक बिजली चमकी वह भीगता हुआ एक पुराने पेड़ के नीचे बैठ गया तभी, उसके सामने वही रहस्यमय साधु प्रकट हुए मानो बादलों से उतर आए हों,साधु बोले तू परिणाम देखता है पर कारण भूल जाता है बीज पुराने हैं, फसल आज काटनी है तू भलाई कर पर फल की इच्छा मत कर यह संसार तेरी इच्छा से नहीं, सृष्टि के नियमों से चलता है,

धीमे-धीमे समझ

अगले कई दिनों तक विशाल साधु के साथ रहा सीखा कर्म अगर पौधा है,तो उसका फल अवश्य आएगा अच्छे कर्म बुरे को कम कर सकते हैं, पर मिटा नहीं सकते भाग्य एक पूर्व-लिखित पटकथा है,पर उसमें अभिनय हमारे हाथ में है और अभिनय ही,अगले जन्म की पटकथा लिखता है,

वापसी

विशाल फिर गाँव लौटा। लोग उसे देखकर रो पड़े क्योंकि महामारी वापस फैल चुकी थी इस बार उसने किसी भी परिणाम की परवाह नहीं की वह बस कर्म करता गया अकेले कई जीवन बचाए कई खो दिए पर दिल मे शांति उतरने लगी क्योंकि अब वह समझ चुका था कर्म करना मेरा धर्म है फल प्रकृति का,

SLIONRAJA STUDIO