ISHWAR #PART2

यह एक महाकथा हैं जो 20 भागों में विभाजित है ,और ये कहानी काल्पनिक हैं

यह कहानी मनुष्य के भाग्य, मृत्यु, और प्रकृति के अद्भुत चक्र पर आधारित है तुम इसे गहरी दार्शनिक, पौराणिक और भावनात्मक शैली में चाहते हो.

RAJA KUMAR PARAJAPATI

11/14/2025

इस ब्लॉग में 9 से 14 तक की कहानी है

भाग (9) आत्मा का निर्णय

जब आरव ने अंतिम सांस छोड़ी, उसके चारों ओर प्रकाश का घेरा बन गया ,लोगों ने कहा, वह संत था विज्ञान में भी अध्यात्म देखता था पर उसी क्षण उसकी आत्मा शरीर से ऊपर उठ गई। उसके भीतर कोई भय नहीं, कोई मोह नहीं वह सीधे उस उजाले की ओर जा रही थी जहाँ एक बार अर्जुन और आर्यन जा चुके थे, ब्रह्मलोक मार्ग में उसे असंख्य आत्माएँ दिखीं, कुछ नई थीं, कुछ पुरानी, कुछ भटक रही थीं फिर वही परिचित प्रकाश सामने आया, ब्रह्मा, विष्णु और महेश अपने तेज से आलोकित


इस बार आरव ने प्रणाम किया और कहा, प्रभु, अब सब समझ गया हूँ हर जन्म एक पाठ था, हर अंतर एक सीख। पर अब मैं क्या हूँ ब्रह्मा ने उत्तर दिया, अब तू वह आत्मा है जिसने मनुष्य रूप में संतुलन सीखा ज्ञान, शक्ति और करुणा का संगम यही तेरा सार है विष्णु बोले, मनुष्य जब ज्ञान में घमंड जोड़ देता है, तब विनाश होता है पर तूने दिखाया कि जब ज्ञान नम्र बन जाए, तो वही सृजन बन जाता है महेश की गम्भीर आवाज़ गूँजी,अब तू करने वाला नहीं देखने वाला बनेगा तू उस व्यवस्था का साक्षी बनेगा जिससे ब्रह्मांड चलता है अब तू किसी जन्म में नहीं जाएगा। तू स्वयं समय का हिस्सा बनेगा आरव के भीतर शांति उतर आई उसने पूछा, तो क्या अब मेरा कोई उद्देश्य नहीं बचा, ब्रह्मा बोले, हर मुक्त आत्मा का उद्देश्य होता है सृष्टि को संतुलित रखना, तू निरीक्षक रहेगा जब कहीं अधर्म, अनियंत्रण या अज्ञान बढ़ेगा, तू प्रेरणा बनकर वहाँ पहुँचेगा, शब्द नहीं, विचार के रूप में,

धीरे-धीरे उसके चारों ओर आकाश रंग बदलने लगा पहले सुनहरा, फिर नीला, फिर पारदर्शी उसने देखा, दूर कहीं पृथ्वी घूम रही थी तकनीक के युग में इंसान फिर उसी पुरानी भूलों की ओर जा रहा था लालच, युद्ध, अहंकार वह बोला, क्या मनुष्य कभी सीख पाएगा विष्णु मुस्कुराए, मनुष्य बार-बार गिरता है ताकि बार-बार उठने का साहस पा सके ब्रह्मा बोले, तेरा यही कार्य होगा तू उन्हें भीतर से प्रेरित करेगा कि वे समझें प्रकृति से आगे कुछ नहीं और तभी आरव की आत्मा एक दिव्य ज्योति में बदल गई वह आकाश में विलीन नहीं हुई, बल्कि प्रकाश की धाराओं में विभाजित होकर धरती की ओर प्रवाहित हो गई कहीं किसी बच्चे के भीतर जिज्ञासा जगी, कहीं किसी वैज्ञानिक के मन में संवेदना, कहीं किसी माँ ने अपने बेटे को सहज करुणा सिखाई सब उसके अंश बन गए अब वह एक आत्मा नहीं थी, बल्कि विचारों का प्रवाह थी जो हर युग, हर मानव में थोड़ी-थोड़ी बसती है यही कारण है कि जब भी कोई मनुष्य अहंकार छोड़कर कहता है, जीवन प्रकृति का वरदान है, उसी में सबका सार है तो वह आवाज़ कहीं गहराई में आरव की ही गूँज होती है और ब्रह्मलोक में, ब्रह्मा ने चित्रगुप्त से कहा,
देखो, यह वही आत्मा थी जो प्रकृति से आगे जाना चाहती थी अब वही प्रकृति का प्रहरी बन गई है अंतरिक्ष में एक हल्की मुस्कान उभरी और एक नया युग आरंभ हुआ, जहाँ आत्मा अब भी निगाह रखती थी, मौन होकर भी मार्गदर्शन देती हुई,

भाग (10) भविष्य की चेतना

हजारों वर्ष बीत चुके थे पृथ्वी अब वैसी नहीं रही थी जैसी आरव के समय थी शहर अब आसमान को छूते थे, मनुष्य ने चाँद पर नगर बसाए और मंगल पर खेती शुरू कर दी थी मशीनें अब सोचने लगी थीं, और इंसान स्वयं को ईश्वर समझने लगा था वह अपने अस्तित्व की सीमाएँ तोड़ता जा रहा था जीन बदलकर जीवन बनाना, मौसम नियंत्रित करना, और यहां तक कि कृत्रिम आत्माएँ तैयार करना पर कुछ गलत था धरती की नमी घट रही थी, हवा घुटन से भर रही थी, और समुद्रों का क्रोध बढ़ गया था प्रकृति जैसे मौन होकर चेतावनी दे रही थी तुम भूल रहे हो,

मैं सृष्टि की जननी हूँ इसी युग में, एक वैज्ञानिक थी अनिकेत शर्मा, वह एक नई तकनीक पर काम कर रहा था, जो मानव शरीर को अमर बना सकती थी वह सोचता था, अगर मृत्यु मिटा दूँ तो इंसान देवता बन जाएगा रात-दिन वह प्रयोग करता रहा लेकिन एक रात, जब वह प्रयोगशाला में अकेला था, अचानक कमरे की सारी मशीनें बंद हो गईं एक आभा, एक हल्का प्रकाश उसके सामने प्रकट हुआ अनिकेत ने देखा,मानो कोई आकृति वहाँ खड़ी है, पर उसका कोई चेहरा नहीं बस एक आवाज़ थी शांत और अनंत अनिकेत, तू वही कर रहा है जो हर युग में मनुष्य करता आया है प्रकृति से आगे जाने की कोशिश। क्या तुझे आरव की आत्मा याद है अनिकेत चौंका कौन आरव आप कौन हैं उत्तर आया, मैं विचार हूँ वो ऊर्जा जो हर युग में तुझे दिशा देने आती है मैं वही चेतना हूँ जो तब भी थी जब तू मिट्टी था,

और तब भी रहूँगी जब तू तारा बनेगा अनिकेत काँप गया तो क्या अमरता गलत है आवाज़ ने कहा, अमरता आत्मा की है, शरीर की नहीं शरीर मिटेगा ताकि जीवन चलता रहे,अगर तू प्रकृति की गति रोक देगा, तो सृष्टि स्थिर हो जाएगी, और जहां गति नहीं, वहाँ जीवन नहीं अनिकेत के भीतर जैसे बिजली सी कौंध गई उसके प्रयोगशाला के आईने में उसे क्षणभर के लिए किसी दूसरे युग के दृश्य दिखे अर्जुन की मृत्यु, आर्यन की शिक्षाएँ, आरव का विज्ञान वह घुटनों पर गिर पड़ा,अब मैं समझ गया। मैं प्रकृति का विरोध नहीं, उसका सहयोग करना चाहता हूँ उस दिन से उसने अपना शोध बदला अब वह अमरता नहीं बल्कि संतुलन पर काम करने लगा उसने ऐसी तकनीकें विकसित कीं जो इंसान और प्रकृति को एक साथ चला सकें हवा से ऊर्जा, पौधों से औषधि, और जल से आत्मा की पवित्रता दुनिया धीरे-धीरे बदलने लगी नए बच्चे पेड़ों को पूजने लगे, हवा को जीवनमाता कहने लगे मानवता

जैसे फिर अपनी जड़ों की ओर लौट रही थी और ब्रह्मलोक में वह दिव्य अलोकिक स्वर गूँजा देखो, सृष्टि फिर संतुलन पा रही है प्रकृति ने फिर क्षमा कर दी है अंतरिक्ष के पार वह पुरानी आत्मा जो कभी अर्जुन थी, आरव बनी, और अब चेतना थी मुस्कुरा उठी उसने कहा, यही जीवन का नियम है प्रत्येक युग को अपनी भूल से सीखना होता है मनुष्य मरकर नहीं खोता, और प्रकृति कभी क्रोधित नहीं होती, दोनों एक ही तंत्र के दो रूप हैं धरती पर एक हल्की हवा चली, फूल झूम उठे, पेड़ों पर पक्षी गाने लगे और आसमान ने जैसे फुसफुसाया कहानी अभी खत्म नहीं लीला अनंत है,

भाग( 11) सृष्टि का संतुलन

समय बीतता गया, युग बदलते गए मानवता ने अब अपनी दिशा पा ली थी अब युद्ध नहीं होते थे, लालच नहीं था, सीमाएँ मिट चुकी थीं पृथ्वी एक संयुक्त परिवार बन गई थी हर महाद्वीप, हर देश, हर जाति सब एक ही विचार में बंधे थे प्रकृति के साथ जीवन ही असली अस्तित्व है नदियाँ अब स्वच्छ बहती थीं, वृक्षों से आकाश फिर हराभरा था ऊर्जा का कोई संकट नहीं, क्योंकि इंसान ने जान लिया था कि सृष्टि की असीम शक्तियाँ तभी मिलती हैं जब वह विनम्र हो जाता है शहरों के केंद्र में प्रकृति मंदिर बनाए गए थे जहाँ न मूर्तियाँ थीं, न कर्मकांड, बस वृक्ष, हवा और सूरज की किरणें थीं इसी युग में एक परिषद बनी मानव चेतना परिषद उनका उद्देश्य था यह सुनिश्चित करना कि कोई भी खोज, कोई भी ज्ञान प्रकृति के नियम से परे न जाए उनके प्रमुख थे अनिकेत के शिष्य लावण्य शर्मा, जो कहती थी, ज्ञान तब तक सुंदर है जब तक वह विनम्र है

लोग ब्रह्मांडीय ऊर्जा से संवाद करना सीख चुके थे अब ध्यान एक निजी साधना नहीं रहा था यह विज्ञान का हिस्सा बन गया था हर बच्चा ध्यान के माध्यम से ध्यान-तरंगों को महसूस करता, और समझता कि हर जीव में वही चेतना प्रवाहित है जो सृष्टि को चलाती है एक ऐसे ही दिन, पृथ्वी की ऊर्जा में एक अद्भुत कंपन हुआ आकाश में सुंदर रंगों की लहरें फैल गईं लोगों ने आश्चर्य से देखा एक विशाल प्रतीक उभरा, जो पहले किसी ने नहीं देखा था वह प्रकाश का चक्र था, जिसमें हर रंग अस्तित्व के किसी तत्व का प्रतीक था मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और आकाश,उस प्रकाश से एक हल्की आवाज़ फैली सृष्टि अपने संतुलन पर लौट चुकी है जो आत्मा आरंभ में ज्ञान खोजने चली थी, वह अब संपूर्णता में विलीन हो रही है लोग घुटनों पर बैठ गए आसमान जैसे बोल रहा था यह वही आत्मा है जो युगों से मार्गदर्शक थी अर्जुन, आर्यन, आरव और अब विचार और ठीक उसी क्षण, पूरे ग्रह पर एक अनोखी शांति फैल गई विज्ञान केंद्रों में मशीनें कुछ पल के लिए थम गईं, पर कोई डर नहीं था बल्कि एक अपूर्व स्थिरता थी, जैसे पूरे ब्रह्मांड ने एक साथ श्वास रोकी हो फिर हवा चली, और सब कुछ जैसे पुनः जीवंत हो गया लोग एक-दूसरे से बोले, हमने शायद अब जान लिया है

कि ईश्वर बाहर नहीं, भीतर रहता है अब हर व्यक्ति अपने जीवन में यह सिद्धांत कहने लगा हर कर्म को ऐसे करो, जैसे तुम प्रकृति की आँखों में देख रहे हो और यह वाक्य पृथ्वी की नई संस्कृति का आधार बन गया सैकड़ों वर्षों बाद, जब मनुष्य अन्य ग्रहों तक फैल गया, तब भी यह वाक्य साथ गया क्योंकि यही था सृष्टि का नियम, यही ब्रह्म का संदेश और ब्रह्मलोक से वह प्रकाश फिर मधुर स्वर में बोला, लीला समाप्त नहीं हुई है, बस रूप बदल गया है। अब हर आत्मा में वही प्रकाश रहेगा, जो कभी अर्जुन के भीतर था धरा पर एक नई सुबह हुई जहाँ न मृत्यु का भय था, न जन्म की जकड़न
सब कुछ था, बस संतुलन, शांति और ब्रह्म का स्पंदन,

भाग (12) सृष्टि के पार

धरती शांत थी, मानव सभ्यता पूर्ण संतुलन में अब लोग आकाश की ओर देखते और मुस्कुराते, क्योंकि उन्हें स्मरण था कि वे ब्रह्म के ही अंश हैं विज्ञान और ध्यान अब एक ही भाषा बन गए थे मनुष्य अब केवल देखने वाला नहीं, अनुभव करने वाला बन गया था पर उसी शांति के बीच एक और यात्रा की तैयारी हो रही थी वही सनातन चेतना, जिसने युगों से मनुष्य को दिशा दी थी, अब ब्रह्माण्ड के पार जाने को तत्पर थी एक प्रकाश तरंग विश्व के ऊपर फैल रही थी वह चेतना थी, जो अब ग्रहों, तारों और सौरमंडलों से गुजरती हुई आगे बढ़ रही थी हर स्थान पर उसे एक ही ताल सुनाई दे रही थी ओंकार जो सृष्टि का मूल स्वर था जैसे-जैसे वह आगे बढ़ती गई, समय और दूरी का भेद मिटता गया अब उसके सामने अनंत अंधकार था, न प्रकाश, न छाया फिर भी वहाँ एक शांति थी ऐसी शांति जो सृष्टि से पहले की थी वह आवाज़ बोली, स्वागत है यह वही शून्य है जहाँ से सब शुरू हुआ था आत्मा ने पूछा, क्या यह ईश्वर का निवास है

उत्तर मिला, यह ईश्वर भी है और उससे पहले का मौन भी यहाँ कोई नाम नहीं, कोई रूप नहीं, सिर्फ अस्तित्व की अनुभूति है आत्मा ने देखा, चारों ओर चमकती ऊर्जा के बिंदु हैं वे हर आकाशगंगा, हर जीवन, हर आत्मा के बीज थे वह समझ चुकी थी यही वह स्थान है जहाँ भाग्य लिखा जाता है, जहाँ ब्रह्मा की कलम चलती है उसने देखा कि ब्रह्म स्वयं कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि एक अनंत तरंग है जो अपने ही केंद्र से सृष्टि की लहरें उठाती रहती है हर लहर किसी आत्मा का जीवन थी, हर उठान एक युग था, हर शांत स्थिरता मृत्यु का नाम, चेतना ने झुककर प्रणाम किया अब समझ आया, प्रकृति कोई सीमित शक्ति नहीं, वह इस ब्रह्म की ऊर्जा का स्वरूप है हम जो इसे मात देने की कोशिश करते हैं, असल में उस अनंत को सीमा में बांधना चाहते हैं जो असंभव है ब्रह्म-स्वर बोला, तू पूर्ण हो गई है अब तू न किसी जन्म में जाएगी, न किसी देह में, क्योंकि अब तू स्वयं ऊर्जा है सृष्टि की लय में विलीन

धीरे-धीरे वह प्रकाश बिंदु उस ब्रह्म तरंग में समा गया कोई अंत नहीं था, सिर्फ विस्तार था सारी आकाशगंगाएँ, सभी नक्षत्र, सब जीवन उसी लय में झूमने लगे,समय थम गया न कोई पहले था, न कोई बाद में सब एक साथ, एक ध्वनि की तरह जी रहे थे शांति शांति और तब, ब्रह्म की मधुर ध्वनि गूँजी,सृष्टि फिर आरंभ होगी, नए रूप में, नए अनुभवों के साथ, हर आत्मा लौटेगी, किसी न किसी कहानी के रूप में, क्योंकि लीला अब भी बाकी है वही चमक फिर फैल गई,कहीं दूर एक नए ग्रह पर हलचल हुई, हवा में पहला बीज गिरा, मिट्टी ने जीवन को स्पर्श किया, और नई यात्रा शुरू हो गई,

भाग ( 13) नए जीवन का प्रथम स्वर

शून्य फिर हिला ब्रह्म की लहर ने धीरे-धीरे गति पकड़ी, और उस मौन महासागर में ऊर्जा की एक सूक्ष्म चिंगारी चमकी वह चिंगारी वही थी वह चेतना जो अनादि काल से सृष्टि की सहयात्री रही थी अब ब्रह्म ने कहा, समय पूरा हुआ अब लीला नए लोक में शुरू होगी दूर किसी आकाशगंगा के भीतर, एक नवगठित ग्रह पर पहली बार बारिश हुई पहाड़ उठे, नदियाँ बह चलीं, और मिट्टी में जीवंतता आई वहीं, एक गुफा में जीवन का पहला संकेत प्रकट हुआ एक छोटा जीव, जल और वायु के मिलन से उत्पन्न हुआ उसके भीतर एक चमक थी, जो अन्य किसी जीव में नहीं थी वह थी उसी आत्मा की ज्योति, जिसने अनगिनत जन्मों के अनुभव अपने भीतर समेट रखे थे युग बीतते गए वह सरल जीव विकसित होता गया—सोचने लगा, अनुभव करने लगा अब उसकी चेतना धीरे-धीरे रूप ले रही थी कभी वह झरने के पास खड़ा होकर आकाश देखता,

कभी हवा में हाथ फैलाकर महसूस करता कि कुछ है जो उसे पुकार रहा है दिनों के बाद वह स्वयं को मनुष्य के रूप में देखने लगा, पर यह मनुष्य पहले जैसे नहीं था उसकी आँखें शांत थीं, उसकी भाषा कम थी, पर संवेदना गहरी वह पेड़ों से बात करता, पत्थरों में ऊर्जा महसूस करता, और हवा में अपने पुराने स्मरण खोजता,उसे कभी-कभी स्वप्नों में कोई आवाज़ सुनाई देती,तू वही है जिसने सृष्टि को समझा, अब तू उसे सँभालेगा,धीरे-धीरे यह नई सभ्यता बनने लगी मनुष्य अब फिर से प्रारंभिक चरण में था, पर इस बार उसमें अहंकार नहीं था वह जानता था कि जीवन प्राप्त करना उपहार है, अधिकार नहीं वह जल को प्रणाम करता, सूरज को अभिवादन करता, मिट्टी को चूमता,एक दिन वह पहाड़ की चोटी पर बैठा था, जब हवा में एक हल्की गूँज सुनाई दी तू अब ब्रह्म की लीला का नया अध्याय है पर याद रख, जब जीवन सीख लेता है कि वह प्रकृति के साथ है, तब ही सृष्टि स्थायी होती है

मनुष्य मुस्कुराया उसने मिट्टी से एक छोटा पत्थर उठाया, उसे दोनों हथेलियों में रखा और बोला, मुझे याद रहेगा हर जन्म सीखने का ही तो अर्थ है आकाश में हल्का प्रकाश फूटा ब्रह्म की ऊर्जा मुस्कुरा उठी, यह वही क्षण था जब सृष्टि ने फिर से स्वयं को जाना नदियाँ बहती रहीं, वृक्ष हरे रहे, और जीवन अपनी अनंत यात्रा पर बढ़ चला आत्मा फिर से अनुभव करने लगी खुशियाँ, पीड़ा, परंतु इस बार जागरूकता के साथ और कहीं ब्रह्मलोक की शांति में वह स्वर गूँजा लेख फिर से लिखा गया है, लेकिन इस बार ज्ञान के साथ लीला फिर शुरू हुई, पर अब वह प्रेम के रूप में है,

भाग (14) सृजन का युग

अनगिनत वर्षों के बाद वह छोटा ग्रह फूलों से भर चुका था वृक्ष आकाश को छूते थे, नदियाँ धीमे से गुनगुनाती थीं
जीव-जंतु एक-दूसरे से बिना भय के रहते थे, और मनुष्य ने अपने भीतर शांति का घर बना लिया था यही नई सभ्यता का आरंभ था समष्टि युग इस युग में मनुष्य ने प्रकृति को अपने अधिकार में नहीं, बल्कि सहयोग में लिया उसने समझ लिया था कि ज्ञान का उद्देश्य नियंत्रण नहीं, संयम है जहाँ पुरानी सभ्यताएँ शहरों में कैद हो गई थीं, वहाँ यह नई सभ्यता खेतों, पहाड़ों और झीलों में साँस लेती थी हर नगर में तीन स्थान अनिवार्य थे पहला, ज्ञान-स्थान, जहाँ बच्चे विज्ञान, गणित और तर्क सीखते थे दूसरा, संगीत-स्थान, जहाँ कला और संगीत से भावना को दिशा दी जाती थी तीसरा, ध्यान-स्थान, जहाँ आत्मा को प्रकृति से जोड़ा जाता था

यह त्रिसूत्र विज्ञान, कला और ध्यान इस सभ्यता की आत्मा था लोग कहते थे, जब हृदय भावनाओं में मस्तिष्क ज्ञान में, और आत्मा शांति में हो तब ईश्वर मुस्कुराता है एक कलाकार, अनाया, उस समय की सबसे प्रसिद्ध संगीतकार थी वह जब वीणा बजाती, तो चारों दिशाएँ थम जातीं लोग कहते, उसके सुर में सृष्टि की याद बसती है एक दिन उसने अपने गुरु से पूछा गुरुदेव, क्या संगीत ईश्वर तक पहुँचा सकता है गुरु ने मुस्कुराकर कहा संगीत स्वयं ईश्वर का स्वरूप है बस सुनने वाला जागरूक होना चाहिए दूसरी ओर, वैज्ञानिक किरन ऊर्जा पर शोध कर रहा था उसने एक ऐसी प्रणाली बनाई जो किसी भी जीवित स्रोत से ऊर्जा लेकर उसे पुनः जीवन में परिवर्तित कर सकती थी पर वह गर्वित नहीं था, उसने कहा,यह मेरी खोज नहीं यह प्रकृति के रहस्य का उद्घाटन है मैंने कुछ नया नहीं रचा, बस उसे देखा जो पहले से था और उधर ध्यान-स्थान में बच्चों का एक समूह रोज़ सुबह

पाँच बजे बैठता आँखें बंद करता और कहता हम पृथ्वी के अंश हैं, हवा हमारे भीतर है सूर्य हमारी सांसों में उनकी आवाज़ में न कोई मंत्र था न भय केवल कृतज्ञता धीरे-धीरे यह सभ्यता विश्व के हर कोने तक फैल गई अब कोई युद्ध नहीं, न प्रतिस्पर्धा, न सीमाएँ जहाँ पुरानी दुनिया में लोग कौन बेहतर पूछते थे, वहाँ अब यह सवाल होता ,कौन संतुलित है एक दिन, पूर्णिमा की रात थी सभी लोग खुले आकाश के नीचे एकत्र हुए थे उनके बीच एक प्रकाश उतरा वही पुरानी चेतना, जो अब आशीर्वाद-रूप थी वह बोली, तुमने सृष्टि को समझ लिया है अब तुम्हारा कर्म सृजन को बनाए रखना है कोई सभ्यता तब तक स्थायी है जब तक वह विनम्र रहती है लोगों ने अपने हृदय पर हाथ रख कहा, हम सृजन की संतानें हैं, विनाश की छाया नहीं आकाश में प्रकाश फैल गया, और हर आत्मा में एक हल्की शांति उतर आई
यह वही पल था जिसकी प्रतीक्षा युगों से थी जब जीवन ने जाना कि वह प्रकृति से अलग नहीं, उसका विस्तार है नीचे धरती पर लहरें धीमे-धीमे किनारे पर आईं और वापस चली गईं जैसे कह रही हों ,सृष्टि चलती रहती है, और चेतना अमर रहती है

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