RAJA KA GHAMAND OR DEVATAON KI PAREEKSHA

THE RAJA KA GHAMAND OR DEVATAON KI PAREEKSHA STORIES IS IMAGINARY

SHIV VISHNU OR BRAHMA NE IS KHAHANI KE RAJA KA GHAMAND CHUR CHUR KAR DIYA

10/20/2025

राजा का घमंड और देवताओं की परीक्षा

बहुत समय पहले, हिमगिरी पर्वतों के बीच बसे 'अनंतपुर' नाम के राज्य में एक राजा रहता था राजा अर्जुनदेव वह बुद्धिमान, वीर और धर्मपरायण था हर सुबह वह भगवान शिव, विष्णु और ब्रह्मा की पूजा करता था। उसके राज्य में सुख‑शांति, धन‑धान्य और प्रसन्नता चारों ओर फैली थी लेकिन धीरे‑धीरे राजपद का वैभव उसके मन में

अहंकार बोने लगा वह अकसर दरबार में कहता मैं तीनों देवों का सर्वप्रिय भक्त हूँ जब मेरी रक्षा स्वयं त्रिदेव करते हैं, तो संसार में ऐसा कौन है जो मेरा कुछ बिगाड़ सके, देवगण स्वर्ग से उसके मन की यह स्थिति देख रहे थे उन्होंने निश्चय किया कि राजा को उसके भ्रम से बाहर लाना होगा कुछ ही दिनों में राज्य में वर्षा बंद हो गई नदियाँ सूख गईं, खेत बंजर हो गए पहले प्रजा भूख से व्याकुल हुई, फिर पशु‑पक्षी तक प्यास से मरने लगे लोगों ने विनती की, महाराज, देवताओं से वर्षा की प्रार्थना कीजिए पर राजा का हृदय अब भी कठोर था उसने कहा मैं सच्चा भक्त हूँ। देवता मुझे बिना मांगे ही वर्षा देंगे उन्हें याद दिलाने की मुझे आवश्यकता नहीं महीने बीत गए अब राजा स्वयं भी भूखा‑प्यासा रहने लगा राजमहल की

शानो‑शौकत राख में बदलने लगी एक रात जब वह सूखे बगीचे में भटक रहा था, उसे दूर से एक बूढ़ा साधु दिखा। साधु ने कहा,राजन भक्ति और घमंड एक साथ नहीं रह सकते जब तक तुम स्वयं को सर्वोच्च समझोगे, वरदान भी अभिशाप बन जाएगा राजा के हृदय पर ये वचन बिजली बनकर गिरे उसके अहंकार का पर्दा फट गया
वह धरती पर गिर पड़ा और आकाश की ओर देखते हुए बोला, हे त्रिदेव मैंने स्वयं को आपसे भी बड़ा समझ लिया था यही मेरा पतन है अब मुझ पर और मेरी प्रजा पर दया कीजिए उसकी आँखों से आँसू गिरे और उसी क्षण गर्जन की आवाज आई बादल उमड़ पड़े और पूरे राज्य में मूसलाधार वर्षा हो गई नदियाँ फिर बहने लगीं, भूमि हरियाली से लहलहाने लगी, और प्रजा ने प्रसन्न होकर जयघोष किया राजा अर्जुनदेव ने देवताओं के नाम एक भव्य मंदिर बनवाया और प्रण लिया कि वह अब कभी भी अहंकार को अपने हृदय में स्थान नहीं देगा

उस दिन से अनंतपुर राज्य में केवल वर्षा ही नहीं, विनम्रता का अमृत भी बरसने लगा,

राजा अर्जुनदेव की नई परीक्षा

वर्षों बीत गए अनंतपुर अब पहले से भी समृद्ध था राजा अर्जुनदेव विनम्र और न्यायप्रिय हो गया था मंदिरों में प्रतिदिन भजन‑कीर्तन होने लगे, लोगों के चेहरों पर संतोष झलकने लगा लेकिन जहाँ भक्ति होती है, वहीं फिर एक नई परीक्षा भी आती है एक दिन दरबार में एक यात्री साधु आया उसने कहा, राजन, उत्तर दिशा में एक प्रदेश है कल्याणगिरि। वहाँ के राजा ने अपने अहंकार में लोगों का जीना दूभर कर दिया है

क्या तुम उसकी सहायता करोगे राजा के मन में करुणा उमड़ आई उसने सेना को साथ लेकर यात्रा प्रारंभ की रास्ते में उसे सूना‑सा गाँव मिला न घर, न खेत, न जीवन की कोई हलचल। तभी साधु पुनः प्रकट हुआ और बोला राजन, यह वही मार्ग है जहाँ तुम्हारे अहंकार ने कभी वर्षा रोकी थी अब इसे अपने कर्म से पवित्र करना होगा राजा ने अपने सैनिकों से कहा, यहीं हम रुकेंगे पहले इस भूमि को फिर से उर्वर बनाएँगे, तभी आगे बढ़ेंगे वह खुद किसानों के साथ हल चलाने लगा, पेड़ लगाने लगा, कुएँ खुदवाने लगा कई महीनों बाद वह भूमि फिर हरियाली में नहा उठी तभी त्रिदेव ने ब्रह्मलोक से दर्शन दिए और बोले,राजन, यह तुम्हारी दूसरी परीक्षा थी अब तुम सच्चे भक्त हो जो कर्म को पूजा समझता है, वही हमारी कृपा का अधिकारी होता है राजा सिर झुकाकर बोला,
“हे प्रभु अब समझ गया हूँ कि भक्ति शब्दों से नहीं, सेवाभाव से सिद्ध होती है देवताओं का आशीर्वाद पाकर अर्जुनदेव वापस लौटा अनंतपुर में उस दिन से एक नया पर्व मनाया जाने लगा कर्मोत्सव जिस दिन लोग दूसरों की मदद और सेवा को ही सबसे बड़ा धर्म मानते थे इस तरह राजा अर्जुनदेव ने यह सच्चाई जानी कि जो खुद को न्यून बनाता है, वही ईश्वर के सबसे निकट होता है,

राजकुमार की कसौटी और परम सत्य

कई वर्ष बीत गए अब राजा अर्जुनदेव वृद्ध हो चुका था उसने राज्य का भार अपने ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार विक्रमदेव को सौंप दिया विक्रमदेव युवा, तेजस्वी और विद्वान था, लेकिन उसके भीतर शक्ति और ज्ञान को लेकर एक जिज्ञासा थी मैं अपने पिता से भी बड़ा राजा बनूंगा, जो न केवल राज करता हो, बल्कि देवताओं से भी सीधे संवाद करेइस जिज्ञासा के पीछे महत्वाकांक्षा छिपी थी, जिसे स्वयं विक्रमदेव भी समझ नहीं पाया एक रात उसने निर्णय किया मैं त्रिदेवों की तपस्या करूँगा और उनसे वरदान प्राप्त करूँगा कि मेरे राज्य पर कभी विपत्ति न आए वह तप करने एकांत वन चला गया वर्षों बीते, उसने कठोर साधना की और एक दिन उसकी

भक्ति से तीनों देवता प्रकट हुए भगवान ब्रह्मा बोले,वर मांगो पुत्र, पर ध्यान रहे कि हर वरदान के साथ एक परीक्षा भी जुड़ी होती है पर विक्रमदेव ने बिना सोचे कहा,हे देवगण, ऐसा वर दीजिए कि मेरे राज्य में कभी कोई रोग, दुख या मृत्यु न हो त्रिदेव मौन रहे, फिर विष्णु बोले,तथास्तु पर यह मत मानना कि जीवन बिना दुख के जीवित रह सकता है राज्य में लौटने पर सब कुछ सचमुच बदल गया कोई बीमार न पड़ता, कोई न मरता, सब प्रफुल्लित थे कुछ समय तक सब कुछ सुंदर लगने लगा, पर धीरे‑धीरे अजीब शांति छा गई लोगों ने काम करना छोड़ दिया; कोई पूजा न करता, कोई दान न देता, क्योंकि न भय था, न अभाव राजकुमार ने देखा कि उसकी प्रजा में जीवन का अर्थ ही खो गया है मंदिरों में दीये बुझने लगे, खेत सूने पड़ गए, और बच्चे तक न हँसते वह व्याकुल होकर चिल्लाया, हे देवताओं ये कैसी अमरता है जो जीवन को ही निर्जीव बना रही है उसी क्षण आकाश में चमक हुई

भगवान शिव बोले,विक्रमदेव, तुम्हारे पिता ने घमंड छोड़ा था, और तुमने जीवन का अर्थ भूल लिया भय और कष्ट ही जीवन को पूर्ण बनाते हैं जहाँ अंत नहीं, वहाँ आरंभ भी नहीं राजकुमार भूमि पर गिर पड़ा और बोला,हे महादेव, अब मैं समझ गया हूँ कि मर्यादा और अपूर्णता ही जीवन को ईश्वर से जोड़ती है। कृपा कर राज को उसके स्वाभाविक रूप में लौटा दीजिए देवताओं के आशीर्वाद से राज्य फिर सामान्य हो गया लोगों में हँसी‑खुशी लौट आई राजा अर्जुनदेव, जो अब योगमार्ग पर थे, मुस्कराए और बोले मेरे पुत्र ने वही सीखा जो किसी राजवंश की अंतिम शिक्षा होती है सत्ता नहीं, समत्व ही सच्चा राज है उस दिन से अनंतपुर की सभ्यता “त्रिदेव पुराण” के नाम से पूजी जाने लगी एक ऐसी कथा जहाँ भक्त, घमंड, और ज्ञान तीनों ने मिलकर ईश्वर की अनुभूति का मार्ग दिखाया,

त्रिदेव पुराण का समापन – आत्मज्ञान का प्रकाश

राजा अर्जुनदेव ने अपना जीवन वन की तपोभूमि में व्यतीत करते हुए अंततः समाधि धारण कर ली उनके पुत्र राजकुमार विक्रमदेव ने पिता के उपदेशों को जीवन का धर्म बना लिया था न्याय, करुणा और संतुलन उसका मार्ग बन चुके थे परंतु उसके मन में फिर भी एक प्रश्न रह गया था क्या देव, मनुष्य और संसार ये तीनों वास्तव में भिन्न हैं या एक ही चेतना के रूप हैं उत्तर खोजने वह कैलाश पर्वत की ओर निकल पड़ा लंबे ध्यान और मौन साधना के बाद, एक शांत रात्रि में उसके सामने त्रिदेव प्रकट हुए

शिव बोले, पुत्र, हमें तुम्हें अब कोई वरदान नहीं देना, केवल सत्य दिखाना है विष्णु ने मुस्कराकर कहा, जिसे तुम देव समझते हो, वही चेतना तुममें भी प्रवाहित है ब्रह्मा ने आगे कहा,सृष्टि, पालन और संहार ये केवल जगत के नहीं, तुम्हारे मन के ही तीन स्वरूप हैं विक्रमदेव विस्मित रह गया। उसने देखा, वह स्वयं त्रिदेव के प्रकाश में विलीन हो रहा है उसी क्षण उसे अनुभव हुआ कि

हर मानव का हृदय देवत्व का ही अंश है, बस अहंकार का पर्दा उसे दिखने नहीं देता अगली सुबह वह राज्य लौट आया। उसने अपने जीवन का नया मार्ग चुना राजसत्ता को अपने मंत्रीमंडल को सौंपकर वह स्वयं एक देवसाधक‑राजऋषि बन गया उसने अनंतपुर में एक विशाल आश्रम की स्थापना की जहाँ हर वर्ग के लोग आकर ध्यान, ज्ञान और सेवा के मार्ग पर चलने लगे वर्षों बाद जब विक्रमदेव ने देह त्यागी, तो आकाश में दिव्य ज्योति फूटी। लोगों ने कहा देखो त्रिदेव का प्रकाश फिर धरती पर उतरा है,

और तभी एक वाणी गूंजी
जो अहंकार को त्यागे, जो करुणा को अपनाए और जो ज्ञान को जीवन से जोड़े वही सच्चा भक्त है, वही सच्चा राजा उस दिन से त्रिदेव पुराण की कथा युगों‑युगों तक सुनाई जाने लगी भक्ति के आरंभ से लेकर आत्मज्ञान की पूर्णता तक,

त्रिदेव दर्शन और लोककल्याण का आदेश

एक रात्रि विक्रमदेव को ध्यान में पुनः त्रिदेवों का दर्शन हुआ भगवान विष्णु ने कहा,“विक्रमदेव, अब आकाश तुम्हें गाइड करने के लिए पर्याप्त है,परन्तु पृथ्वी को तुम्हारे ज्ञान की आवश्यकता है शिव बोले,जाओ, अपने शिष्यों को लोककल्याण का मार्ग सिखाओ जहाँ धर्म केवल पूजा नहीं, सेवा बनकर जिये ब्रह्मा ने आशीर्वाद देते हुए कहा,अब से तुम्हारे शब्द और कर्म लोक में ‘त्रिदेव तत्व’ कहलाएँगे भक्ति से बुद्धि, बुद्धि से करुणा, और करुणा से मुक्ति अगली सुबह विक्रमदेव ने एक नया संकल्प लिया हर गाँव में एक त्रिदेव केंद्र बनेगा जहाँ गरीबों को अन्न और बच्चों को विद्या मिलेगी आश्रम अब ज्ञान का जाल बन गया, जहाँ त्रिदेव का अर्थ जीवन में उतर आया,

विक्रमदेव का अंत और अमर ज्योति

वर्षों बाद, जब विक्रमदेव का जीवन संध्या की ओर बढ़ा, वह पर्वतों की कुटी में एकांत साधना करने लगा एक रात उसने अपने शिष्यों से कहा,अब मेरा देह‑त्याग निकट है पर याद रखो, मृत्यु अंत नहीं, केवल ऊर्जा का परिवर्तन है वह शांत बैठा, ध्यान में डूब गया धीरे‑धीरे आसपास की हवा सुगंधित हो उठी, और एक उज्ज्वल ज्योति ने सम्पूर्ण आकाश को प्रकाशित कर दिया देवदूतों की आवाज आई यह वही आत्मा है जिसने त्रिदेव को स्वयं में अनुभव किया विक्रमदेव का शरीर प्रकाश में विलीन हो गया उसके शिष्यों ने उस स्थान पर एक दीप प्रज्ज्वलित किया जो आज भी अमर ज्योति स्तंभ कहलाता है कहा जाता है कि वहाँ आने वाला हर व्यक्ति यदि सच्चे मन से प्रार्थना करे तो उसे त्रिदेव का साक्षात्कार सपनों में अवश्य होता है उस प्रकार त्रिदेव पुराण एक साधारण साम्राज्य की कथा से आरम्भ होकर अहंकार से आत्मज्ञान तक की यात्रा पूर्ण कर गई,

अमर ज्योति और नए युग का प्रारंभ

विक्रमदेव के देह‑त्याग के वर्षों बाद भी अमर ज्योति स्तंभ निरंतर जल रहा था लोग दूर‑दूर से उसकी आरती करने आते और कहते है इस लौ में किसी अनदेखी शक्ति का स्पंदन है एक रात अनंतपुर में एक दिव्य घटना हुई बिजली चमकी, आसमान से सुनहरी वर्षा बरसी, और उसी समय एक बालक का जन्म हुआ उसका नाम रखा गया आर्यतेज जन्म के समय ही उसकी हथेली में त्रिशक्तियों का चिन्ह उभर आया तीन रेखाएँ जो शिव, विष्णु और ब्रह्मा के प्रतीक-रूप थीं पुरोहितों ने कहा, यह वही आत्मा है जो विक्रमदेव के रूप में पहले धरती पर उतरी थी; अब यह नया युग प्रारंभ करेगा,

आर्यतेज और त्रिशक्ति का रहस्य

आर्यतेज बड़ा हुआ तो बालपन से ही उसके चारों ओर प्रकाश फैलता उसकी दृष्टि में करुणा, वाणी में सौम्यता और मन में अपूर्व ज्ञान था परंतु वह बार‑बार एक प्रश्न पूछता,
लोग केवल देवताओं को क्यों ढूंढते हैं? क्या वो हम सबमें नहीं उसके प्रश्नों से राजपुरोहित चकित थे एक रात ध्यान में उसे एक दिव्य दर्शन हुआ अमर ज्योति स्तंभ के पास तीन आकृतियाँ प्रकट हुईं शिव, विष्णु और ब्रह्मा शिव बोले,आर्यतेज, तू वही आत्मा है जिसने हमें कई बार समझा,इस जन्म में तेरा उद्देश्य देवत्व को लोगों के भीतर जाग्रत करना है विष्णु ने कहा,धर्म अब भय से नहीं, प्रेम से चलेगा ब्रह्मा ने कहा,अब नया युग आरंभ होगा मानव देव युग आर्यतेज ने प्रण किया कि वह देवालयों के साथ‑साथ मनुष्यों के हृदय में भी ईश्वर की ज्योति जलाएगा,

मानव देव युग और त्रिदेव का एकत्व

समय बीता, आर्यतेज ने पूरे भारतवर्ष में मानव देव संदेश फैलाया वह कहता, देवता आकाश में नहीं, हर हृदय में हैं जब मनुष्य करुणा से बोलता है, न्याय से कर्म करता है और सत्य से जीता है तब वही त्रिदेव बन जाता है धीरे‑धीरे यह संदेश एक नया आंदोलन बन गया लोगों ने झगड़े त्यागकर एक‑दूसरे की सेवा शुरू की मंदिरों में पूजा के साथ सेवा अनुष्ठान” आरंभ हुए,जहाँ भूखों को अन्न, रोगियों को औषधि और अंधकार को ज्ञान से प्रकाश दिया जाने लगा आखिर एक दिन आर्यतेज उसी स्थान पर पहुँचा जहाँ विक्रमदेव ने समाधि ली थी वहाँ खड़ा होकर उसने कहा, अब इस युग को किसी अवतार की नहीं, जागे हुए मनुष्य की आवश्यकता है अचानक आकाश में त्रिदेव का आलोक फूटा
सर्वस्वर्णिम प्रकाश ने समूचे अनंतपुर को घेर लिया एक गगनवाणी गूंजी अब त्रिदेव पुराण पूर्ण हुआ ईश्वर मनुष्य में है, और मनुष्य ईश्वर में अमर ज्योति स्तंभ की लौ और तीव्र हो उठी, और उसी से निकलकर एक नया सूर्य उगा जो अब भी प्रतीक है आत्म‑अहंकार से ईश्वर‑एकत्व तक की यात्रा का.

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